पंडित मांगेराम के सांगों का अभिव्यक्ति एवं लोक पक्ष (Pandit Mangeram ke Sang ka Lokpaksh)

Pandit Mangeram ke Sang ka Lokpaksh

सांग दिल्ली, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश व राजस्थान आदि के आसपास के क्षेत्र में उतना ही लोकप्रिय रहा है, जितना उत्तरप्रदेश में नौटंकी। सांगीत, सांग या स्वांग हरियाणा का कौमी नाट्य कहा जा सकता है। गीत जिन्हें रागिनी कहते हैं, इस कला के प्राण हैं। इनमें वाद्य यंत्रों की संगत देने वाले साजिंदे कहलाते हैं, जो झूम-झूम कर रस विभोर होकर उनमें चार-चांद लगाते हैं। इस तरह युवकों का स्त्री वेष धारण करके अभिनय और नृत्य करना इसे अत्यंत आकर्षक व मनमोहक बना देता है।

हरियाणवी लोककवि मांगेराम का जन्म 1906 (संवत् 1963) सिसाणा गांव (रोहतक) में हुआ। इनके पिता अमर सिंह और माता धर्मा देवी थी। इनका लालन-पालन इनके नाना उदमीराम ने किया, क्योंकि उनका कोई पुत्र नहीं था। इसलिए उन्होंने अपने दोहते को गौद ले लिया था। उनका गांव पाणची था(सोनीपत)। इनकी शादी 13 वर्ष की आयु में रामेती देवी से हुई, जिनकी दो पुत्रियां हुई- कृष्णा और फूलवती। पुत्र के मोह में पत्नी के आग्रह पर दूसरी शादी 42 वर्ष की आयु में पिसतो देवी से की, जिससे 5 पुत्र और 3 पुत्रियों का जन्म हुआ। इन्होंने केवल प्रांरभिक शिक्षा ग्रहण की थी, बाकी का ज्ञान गुरुओं एवं श्रुतिशास्त्र व स्वयं के अनुभवों  से अर्जित किया था। गाने बजाने व संगीत का चाव बचपन से था, पंडित लखमीचंद के सांग का चस्का तो इन्हें ऐसा लगा था कि उनके कहने पर 24 वर्ष की आयु में अपनी मोटर सहित उनकी सांग मंडली के साथ ही रहने लगे। इन्होंने हरियाणवी सांग परंपरा में अपनी पहली भूमिका नायिका पात्र के अभिनय के रूप में  निभाई थी, क्योंकि लखमीचंद का शिष्य माईचंद ये अभिनय करता था, जो बेड़े को छोड़कर चला गया था। इसके बाद मांगेराम लखमीचंद के शिष्य बन गए थे। गुरु लखमीचंद से विवाद के कारण आगे चलकर मांगेराम ने अपनी सांग मंडली बना ली थी।

सांग परंपरा में मांगेराम ने उल्लेखनीय योगदान दिया। उन्होंने सांग में संप्रेषणीयता और पात्रों की वेशभूषा में परिवर्तन किया। जहां पहले सांगों में स्त्री पात्र अधिकतर घाघरा या लहंगा या कभी-कभी साड़ी धारण करते थे, वहीं समय की मांग अनुसार और सुविधानुकूल जंफर व सलवार पहनाए। जिसकी दर्शकों ने खूब प्रशंसा की।

इनसे पूर्व सांग परंपरा में नायिका मंच के मध्य खड़ी होकर गाती थी, जिसके कारण चारों और आवाज पहुंच नहीं पाती थी. संचार की इस बाध्यता तो गहनता से समझते हुए मांगेराम ने नायिका की तीन ओर सहेलियों को शामिल किया। जिन्होंने एम्पलीफायर का काम किया। अब चारों कोनों पर एक-एक गायिका अभिनेत्री रागिनी की एक-एक कली गाने लगी। जिससे सभी दर्शकों को सभी अभिनेत्रियों के दर्शन एवं स्वर सुनने में सुविधा मिलने लगी।

उन्होंने सांग साहित्य को सरकारी सहायता और मान्यता दिलवाने के लिए सन् 1962 में ‘हरियाणा गंर्धव सभा’ के नाम से एक समिति का गठन किया। इस सभा के सदस्य हैं- पं. मांगेराम अध्यक्ष, धनपत सिंह उपाध्यक्ष, चंद्र बादी कोषाध्यक्ष और पं. रामचंद्र सचिव बने। बताया जाता है कि इनका सांग भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भी देखा था। इन्हें हरियाणा के सांगियों में शब्द-शिल्पी का खिताब दिया जाता है। हरियाणवी सांग परंपरा में मांगेराम ने कथावस्तु, विषयवस्तु, कलापक्ष और सौंदर्यात्मकता आदि के स्तर पर कई प्रयोग किए एवं सांगों की परंपरा को विकसित किया।

लोककवि मांगेराम के सांगों की कथावस्तु व विषयवस्तु का सांस्कृतिक अध्ययन

पं. मांगेराम के सांगों की कथावस्तु धार्मिक, श्रृंगारिक एवं राष्ट्रीय या वीररस पूर्ण तीन भागों में बांटी जा सकती है। इनमें कथाएं पौराणिक, धार्मिक, पारंपरिक एवं कल्पनाओं पर आधारित हैं। इनके सांग विषयवस्तु के स्तर पर हरियाणवी समाज के सामाजिक एवं सांस्कृतिक दस्तावेज कहे जा सकते हैं। जिनमें उस समय के समाज का स्वरूप और भविष्य के समाज निर्माण की कल्पना दोनों का चित्रण मौजूद है।

हरियाणवी सांग परंपरा में अपने सांग साहित्य में पहली बार मांगेराम ने चित्रित किया है और सांग के स्वरूप में हुए तकनीकि बदलावों को भी रेखांकित किया गया है। पं. मांगेराम की रागिनी में सांग परंपरा, अभिनय, मंच, वाद्यों एवं वेशभूषा का परिचय इस प्रकार है-

“हरियाणा की कहाणी सुण ल्यो दो सौ साल की/कई किसम की हवा चाल्ली नई चाल की।।

एक ढोलकिया, एक सांरगिया खड़े रहैं थे/ एक जनाना, एक मरदाना दो अड़े रहैं थै,

पंदरा-सोल्हा कुंगर जुड़कै घड़े रहैं थे/ गली अर गितवाड्यां के म्हैं बड़े रहैं थे

सबतैं पहल्म या चतराई किस्सन लाल की।

एक सौ सत्तर साल बाद फेर दीपचंद होग्या/ साजिंदे तो बणा दिए ओ घोड़े का नाच बंद होग्या

नीच्चै काला दामण उप्पर लाल कंद होग्या/ चमौला को भूल गए यू न्यारा छंद होग्या

तीन काफिये गाए या बणी रंगत हाल की।

हरदेवा दुलीचंद चतरू भरतू एक बाजे नाई/ घाघरी तो उसनै भी पहरी आंगी छुटवाई

तीन काफिए छोड़ कै कहरी रागनी गाई/ उन तै पाछै लखमीचंद नै डोली बरसाई

बातां उप्पर कलम तोड़ ग्या जो आजकाल की।

मांगेराम पाणची वाला मन मैं करै विचार/ घाघरी के मारे मरगे मूर्ख मूढ़ गंवार

सीस पै दुप्पटा जंफर पायां मैं सलवार/ इब तै आगै देख लियो के चौथा चलै त्यौहार

जब छोरा पहरै घाघरी किसी बात कमाल की।”[1]

मांगेराम की इस रागिनी से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि 1750 के आसापास हरियाणा में सांग का उदय किशनलाल भाट ने किया होगा।

‘कृष्ण-जन्म’ मांगेराम का प्रसिद्ध सांग है। जिसकी कथा द्वापर युग में भगवान विष्णु के कृष्ण रूप में जन्म लेने से लेकर कंस के वध करने तक है। सांग के आरंभ में कवि बताता है कि किस प्रकार कंस के पाप और अधर्म से धरती कांप उठती है और कंस से मुक्ति दिलाने के लिए कृष्ण मनुष्य के रूप में जन्म लेते हैं और कंस से मुक्ति दिलाते हैं। कथा के माध्यम से लोककवि मांगेराम अपने संदेश और समाज के स्वरूप एंव मानसिकताओं को भी उजागर करते हैं। मांगेराम पुत्री जन्म के साथ जुड़ी चिंताओं आदि का चित्रण करते हुए कहते हैं-

“लोकलाज और शर्म हया का मर्ज बाप के जुम्मैं/ साथ पुस्त तक तार्या जा यू कर्ज बाप के जुम्मैं

टोटे-नफे, लाभ हाणि का हर्ज बाप के जुम्मैं/ लखमीचंद कहैं धी-बेटी का फर्ज बाप के जुम्मैं।।”[2]

आज भी ग्रामीण परिवेश लड़की को इज्जत से जोड़कर देखने वाला दृष्टिकोण समाज के मुख्य दृष्टिकोण के रूप में मौजूद है। हालांकि स्त्री शिक्षा और समाज की विकासशील प्रक्रिया में इस तरह के विचार दरकने लगे हैं और स्त्री चेतना का जागरूक स्तर इन रूढ़ियों को लगातार विखंडित कर रही हैं। समाज में समानता का स्तर लगातार विकसित हो रहा है।

जाति व्यवस्था को बनाए रखने में शादी अहम् होती है, परंतु अदर कास्ट मैरिज का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है, जिससे इस जातिगत कट्टरता में कमी भी आने लगी है। दूसरी तरफ हरियाणवी समाज में ऑनर कीलिंग की घटनाएं इस जातिगत कट्टरता का नकारात्मक पक्ष उजागर करता है। लगातार समाज में संवाद और बहस के माध्यम से इस तरह की कट्टरताओं को चुनौती मिल रही हैं। समय के साथ-साथ जो जातियां व्यवसायों से निकली थी, ठीक उसी तरह रिश्ते अब अपने-अपने प्रोफेशनों में होने लगे हैं। एक साथ काम करते हुए आपसी साझेदारियां रिश्तेदारियों में बदलने लगी हैं। भले ही मांगेराम ने अपनी जाति में ब्याह का समर्थन किया हो, परंतु व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने पर यह साफ होता है कि अलग-अलग व्यवसाय भी जाति की अवधारणा की तरह ही सोचने विचारने की प्रणाली बनती जा रही हैं-

“लड़के-लड़की नै मात पिता खुद ब्याहवैं अपनी जात मैं/ लड़का भी इसा सुथरा सै जाणूं मारै चिमका गात मैं”[3]

पारंपरिक समाजों में सारे समाज एक-दूसरे पर आश्रित समाज हुआ करते थे, औद्योगिक व तकनीक ने समाज के बीच आश्रित होने वाले श्रेणी को समाप्त कर दिया। जिसके कारण व्यक्ति समाज की धारा से कटकर व्यक्तिगत स्वार्थों के केंद्र में फंसता चला गया। मांगेराम ने ब्याह के समय दूसरे समाजों की उसमें भागीदारी और निर्णय लेने की शक्तियों का वर्णन किया है-

“शूर सैन कै टिक्का ले कै पहुंच गए बामण-नाई/ कर सोलह सिंगार गोपनी गावण गीत घरां आई।”[4]

ग्रामीण समाज में बैर-भाव शहरी ईर्ष्या की तुलना में ज्यादा आक्रामक रूप में अभिव्यक्त होता है। जिसकी तरफ मांगेराम ने कई सांगों में साफ इशारा किया है-

“ब्याह की बिगड़ी समरै कोन्या, बैर खड्या रह ज्यागा/ काढे तै भी लिकड़ै कोन्या जहर खड्या रह ज्यागा।”[5]

ग्रामीण समाज में जहां एक तरफ भाईचारे की मिसाल दी जाती हैं, वहीं उसका दूसरा पक्ष यह भी है कि बैर-भाव में उसी संजीदगी के साथ मौजूद रहता है।

‘ध्रुव का जन्म’ सांग की कथा सतयुग की है। जिसमें अवधपुरी के राजा उत्तानपाद और उनकी पत्नी सुनीति के यहां कोई संतान नहीं थी। अपनी पत्नी के कहने उन्होंने दूसरी शादी की और उसके दोनों पत्नियों के बीच होने वाली खींचतान का यथार्थ चित्रण किया है। जो सीधे तौर पर मांगेराम के जीवन से भी मेल खाता है। पुत्र मोह में दूसरी शादी उस समय आम बात थी। जिसके दुष्परिणामों की तरफ इस कथा के माध्यम से मांगेराम ने वर्णन किया है। इस कथा के माध्यम से मांगेराम ने पारिवारिक उतार-चढ़ाव और मनुष्य के मनोविज्ञान का सूक्ष्म विश्लेषण किया है। दो बहनों की आपसी ईर्ष्या और तकरार के परिवार या पति पर पड़ने वाले प्रभावों का वर्णन मांगेराम ने बखूबी किया है। वहीं समाज में बेटे के बिना मुक्ति संभव नहीं है, यह धारणा आज भी रूढ़ि के तौर यूं ही मौजूद है, जिसको स्त्री विमर्शकारों की तरफ से निरंतर चुनौतियां दी जा रही हैं। एकल परिवार की अवधारणा भले ही संयुक्त परिवारों की तुलना में अच्छी नहीं मानी जाती, परंतु एकल परिवारों में लड़की को लड़कों के बराबर मानने की प्रवृत्ति धीरे-धीरे विकसित हो रही है।

इस सांग में रानी सुनिति अपनी छोटी बहन को समझाने के लिए कहती है कि “बिन बेटे ना मुक्ति मिलती चाहे लाख बरस तक जी ले।”[6] वर्तमान समय में एक तबका इस पर आज भी इसी तरह विचार करता है और दूसरा तबका इसे खारिज करते हुए लड़कियों के समान रूप से सम्मान दे रहा है।

सांग परंपरा में सभी सांगियों ने लोक से ग्रहण की गई अनेक उक्तियां अपने सांगों में इस्तेमाल की और उनके द्वारा कथा के बीच में गढ़ी गई अनेक उक्तियां समाज द्वारा ग्रहण की गई।

पिंगला भरथरी सांग में उज्जैन के राजा गंधर्व सेन के बेटे भूप भरथरी, उसकी पत्नी रानी पिंगला और भाई विक्रम की कथा है। न्याय प्रिय राजा भरतरी अपनी पत्नी रानी पिंगला से अत्यधिक प्रेम करता है। यह लोकप्रिय एवं नीति परक सांग है। इसमें पिंगला की बेवफाई, विक्रम की कुल के प्रति निष्ठा, भरथरी का मोहभंग, जल्लादों की दया तथा अमरफल का हस्तांतरण आदि का अद्भुत चित्रण है। यह कथा पति-पत्नी के आपसी संबंधों और पत्नी के अवैध संबंधों पर केंद्रित है, जिसमें देवर की निर्णायक भमिका को चित्रित किया गया है। भारतीय कथाओं में रामायण से लक्ष्मण को एक छोटे आदर्श भाई और देवर के रूप चित्रित करने की परंपरा समस्सत लोकसाहित्य एवं भारतीय साहित्य में विद्यमान रही है।

पिंगला अपने देवर विक्रम से कहती है-

“मर्द माणस नै महलां के माहं खांस कै आणा चाहिए सै

एक लाठी ना हांक्या करते याणा स्याणा चाहिए सै

छोटी नणद छोटे देवर नै तै मांग कै खाणा चाहिए सै.”[7]

लोक परिवेश में परिवार के भीतर की मर्यादाओं का निर्वाह आज भी इसी तरह किया जाता है। घर के भीतर के नियम महिलाओं को ध्यान में रखकर निर्मित्त किए जाते थे। इसकी बानगी इस प्रंसग में साफ पता चलती है।

राजा और गुरु दोनों को समान महत्त्व देने वाले मूल्यों को इस सांग में प्रमुखता दी गई है। भारतीय समाज और संस्कृति में गुरु का दर्जा हमेशा से सर्वोपरि रहा है। वहीं वर्तमान संदर्भों में गुरु के निम्म कर्मों ने इस दर्जे को निरंतर नीचे लाने के काम किए हैं। अब समाज में शिक्षक या गुरु का सम्मान लगातार घटता जा रहा है। इस सांग में गुरु के महत्त्व को रेखांकित किया गया है। विक्रम आरोप लगने के बाद नगर सेठ को जबाव देता है-

राजा की स्त्री गुरु की स्त्री तै मां का नाता हो सै, दोस्त की पत्नी,पत्नी की, माता बड़ी विधाता हो सै

ईश्वर सारी देखैं सै उड़ै कर्मा का खाता हो सै।[8]

इसमें संबंधों की गरिमा को मुख्य रूप से रेखांकित किया है। जबकि वर्तमान समय में ‘क्राइम पेट्रोल’, ‘सावधान इंडिया’ जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से हम समाज में रिश्तों को तार-तार होते हुए महसूस करते हैं।

उपभोक्तावादी संस्कृति का सबसे बड़ा नकारात्मक पक्ष यही है कि उसने संबंधों से ऊपर पैसे को लाकर खड़ा कर दिया है। पहले के पारंपरिक समाजों में भी स्वार्थ और लालच देखने को मिलते रहे हैं, परंतु वर्तमान समय में इनकी बढ़ोत्तरी सामाजिक, पारिवारिक तानेबाने को लगातार कमजोर करती जा रही है। आर्थिक तंत्र मजबूत होने के साथ रिश्ते भी विस्तार पाते हैं और मजबूती प्राप्त करते हैं, पर जैसे ही आर्थिक तंत्र कमजोर होने लगता है तो रिश्तेदारों आदि के व्यवहार में भी परिवर्तन आने लगता है। इस प्रसंग में यही दर्शाया गया है-

टोटे के माहं सगे प्यारे की तबीयत खाटी हो ज्या सै, टोटे के माहं सब कुणबे की रे रे माटी हो ज्या सै।[9] यह उक्ति आज भी लोक चर्चाओं में अक्सर सुनी जाती है।

सभ्यता और संस्कृति की विकासमान प्रक्रिया में मूल्यों में बदलाव होते रहे हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है- ‘मनुष्य की जीवनी शक्ति बड़ी निर्मम है, वह सम्यता और संस्कृति के वृथा मोहों को रौंदती चली आ रही है, संघर्षों से मनुष्य ने नई शक्ति पाई है। हमारे सामने समाज का आज जो रूप है वह न जाने कितने ग्रहण और त्याग का रूप है। देश और जाति की संस्कृति केवल बात की बात है।’ त्याग को भारतीय संस्कृति के सबसे बड़े मूल्यों में से एक माना जाता रहा है।

खांडेराव परी सांग उज्जैन के राजा विक्रमाजीत राजा की उदारता और वीरता की कथा है, जिसमें हंसों के देश अकाल पड़ जाता है और हंस मदद के लिए उज्जैन में आ जाते हैं। 12 साल बाद ये वापिस अपने देश लौट रहे थे और जाते वक्त राजा विक्रमजीत की प्रशंसा कर रहे थे। जिसे सुनकर देवता इंद्र क्रौध में आ जाते हैं और वो एक हंसिनी को उठा लेते हैं और कहते हैं कि अपने राजा से कहो कि उसे मुक्त करा लें। तब राजा विक्रमजीत उसे मुक्त करवाकर लाते हैं। रास्ते में उनकी शादी रत्नकौर से होती है और वो दूसरे के दुख भी दूर करते हैं। इसमें कई प्रेमकथाएं भी साथ चलती रहती हैं जैसे रत्नकौर व खांडेराव परी।

इस कथा के माध्यम से लोककवि मांगेराम ने अकाल का चित्रण किया है। अकाल से उत्पन्न कष्टों का भी चित्रण किया है।  इसमें मानवीय ईर्ष्या और परेशानियों का वर्णन भी किया गया है।

सत्ता और राजनीति का चरित्र कैसा होना चाहिए, यह भी सांगों के विभिन्न प्रसंगों में उभरकर आता रहा है। मांगेराम ने शासन प्रणाली का चरित्र कैसा होना चाहिए, इस पर कहा है कि-

जित राजा अन्यायी हो, उड़ै जी कै के करणा सै

चौरासी लाख जीव जंतु नै चक्र मैं फिरणा सै।[10]

जहां पर शासन प्रणाली अन्याय पूर्ण हो, वहां जीवन जीने लायक नहीं रहता। शासन प्रणाली का मूल मंत्र समानता और स्वतंत्रता केंद्रित होने पर ही जनता की भलाई संभव है। उसे ही लोकतांत्रिक शासन कहा जा सकता है।

सामंती समाजों में स्त्रियों को उठा लेने या उनके लिए युद्ध लड़े जाते रहे हैं। सत्ता के भय और मजबूरी में स्त्रियों के लिए घूंघट प्रथा का उदय हुआ था, परंतु समय के साथ इसे हरियाणवी संस्कृति का अभिन्न अंग बना दिया गया। जबकि ये संस्कृति का अंग नहीं था। स्त्रियों की सुरक्षा के लिए यह प्रथा बाहरी पुरुषों को लेकर शुरू हुई थी। जो अब परिवार के पुरुषों पर भी लागू हो गई। मांगेराम ने भी अपने सांगों में स्त्री के लिए घूंघट का समर्थन किया है-

जिनकी बहू नाचती हांडै, उन मर्दा की हद छाती

ऐड़ी कै सिर लाणा हो तै कित रहज्या घूंघट गाती।[11]

मांगेराम ने लोकसाहित्य में स्त्री के प्रति अपने समय के विचारों से लगभग सहमति जताई है, इस मामले में वो अपने समय के बंधनों को तोड़ने में सफल नहीं हो पाए हैं।

चंद्रहास सांग में केरल के राजा मेधावी के पुत्र चंद्रहास का वर्णन है। युद्ध में राजा मेधावी और रानी दोनों मारे गए। इसके बाद उनके पांच वर्षीय पुत्र को उनकी धाय छुपा कर ले गई और उसकी जान बचाने के लिए शहर छोड़ दिया। चंद्रहास और धाय दोनों कुंडलपुर में पहुंच जाते हैं।  राजा दीवान की पत्नी को सारी कहानी सुनाती है और रानी दया करके अपने पास रख लेती है। बाद में धाय चंद्रहास को राज बता देती है। पंडित आकर राजा को बताता है कि यही लड़का तेरी बेटी का पति बनेगा, राजा चंद्रहास को जल्लाद को सौंप देता है। जल्लाद उसे छोड़ देते हैं और उसे राजा कुंतल गोद ले लेता है। जहाँ का राजा दीवान था। राजमहल के पास से गुजरने के समय राजा दीवान की पत्नी धाय से पूछती है कि तुम कौन हो और कहाँ से आए हो। तब धाय सारे वृत्तांत को सुना देती है। इसके पश्चात राजा दीवान की रानी चंद्रहास और धाय को रहने के लिए जगह देती है। समय बीतने पर चंद्रहास को पता चलता है कि धाय उसकी माता नहीं है। चंद्रहास के पूछने पर धाय बता देती है। धाय की मृत्यु के बाद नारद मुनि चंद्रहास को सालगराम की गोली देते हैं और कहते है इससे तुम्हारे सारे काम हो जाएंगे। राजा दीवान की लड़की बिषिया जवान हो रही थी। राजा उसकी शादी के लिए उचित वर की व्यवस्था करने में जुटे थे तभी ब्राह्मण चंद्रहास की तरफ इशारा समय पर कर न पहुंचने पर राजा दीवान राजा कुंडल के यहां जाते हैं। चंद्रहास को वहां देखकर उन्हें बड़ा अफसोस होता है। राजा दीवान चंद्रहास अपने बेटे मदन के यहाँ एक पैगाम भेजते हैं कि चंद्रहास को आते ही तुरंत विष दिया जाए। रास्ते में चंद्रहास बिषिया की बगिया में पहुंचते हैं और नींद आ जाती है। विषिया मन में विचार करती है कि यही मेरा पति होना चाहिए। विषिया को चंद्रहास की जेब में रखी चिट्ठी नजर आती है। वह विष की जगह विषिया कर देती है। चिट्ठी पढ़कर मदन चंद्रहास के साथ विषिया की शादी कर देता है। राजा दीवान जब घर आए तो उन्हें सारी घटना का पता चलता है। राजा दीवान दोबारा चन्द्रहास को मारने की योजना बनाता। मंदिर में जल्लादों को आदेश देता है कि जो व्यक्ति सबसे पहले पूजा करने आए उसको कत्ल कर देना। राजा कुंडल चिट्ठी भेजकर चंद्रहास को अपने पास बुला लेते हैं और चंद्रहास की जगह मदन पूजा करने पहुंच जाता है। जल्लाद उसका वध कर देते हैं। चंद्रहास देवी से प्रार्थना करके मदन के प्राणों की रक्षा करता है। अंत में राजा दीवान चंद्रहास से माफी मांगते हैं।

हूर मेनका सांग में इंद्र, विश्वामित्र और मेनका की कथा है। इंद्र की अपनी सत्ता और शासन को लेकर जो भय था, उसे दूर करने के लिए वह मेनका को मोहरा बनाकर विश्वामित्र की तपस्या को भंग करवाते हैं। देवता लोक और मृत्युलोक के बीच पूरी कथा के उतार-चढ़ाव राजनीतिक रणनीति और सत्ता बचाने के दांवपेंचों की कहानी है। जिसमें स्त्री को उपभोग की वस्तु की तरह इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति साफ दिखती है। आधुनिक युग में इसे ‘हनी ट्रैप’ कहा जाता है। मेनका और विश्वामित्र की संतान शकुंतला पैदा होती है। कण्व ऋषि उसका पालन पोषण करते हैं। राजा दुष्यंत शकुंतला से गंधर्व विवाह करते हैं और वापस हस्तिनापुर लौट जाते हैं। अपनी प्रेम की निशानी के रूप में अंगूठी दे जाते हैं। दुर्वासा ऋषि के श्राप के कारण राजा दुष्यंत शकुंतला को भूल जाते हैं। कण्व ऋषि के वापस आने पर शकुंतला को अपराध बोध होता है और सारा किस्सा कण्व ऋषि को सुनाती है। कण्व ऋषि शकुंतला को माफ कर देते हैं। शकुंतला ने लड़के को जन्म दिया। लड़का भरत छह साल का हो गया तो कण्व ऋषि ने शकुंतला को राजा दुष्यंत के पास हस्तिनापुर भेज दिया, परंतु राजा दुष्यंत द्वारा दी गई अंगूठी शकुंतला की उंगली से निकलकर पानी में गिर जाती है। राजा दुष्यंत शकुंतला को पहचानने से इंकार कर देते हैं। वहां से शकुंतला कश्यप ऋषि के आश्रम में पहुंच जाती है।  वहीं रहने लग जाती है। जल में गिरी  हुई अंगूठी को मछली निगल लेती है। मछुआरे को मछली के पेट से वह अंगूठी मिलती है तो राजा दुष्यंत के पास जाते हैं। अंगूठी देखकर राजा दुष्यंत शकुंतला याद आ जाती है। वह ऋषि कण्व के आश्रम में पहुंचकर शकुंतला से माफी मांग लेते हैं।

अमर सिंह राठौर ऐतिहासिक सांग है, जिसमें में दो राजपूत भाई जसवंत सिंह और अमर सिंह बादशाह के दरबार में नौकर थे। जसवंत सिंह की मृत्यु के बाद उनका लड़का राम सिंह उसकी जगह नौकरी पर रख लिया गया। अमर सिंह अपने भतीजे को नौकरी पर रखने के बाद गौने ने की चिट्ठी आई तो अपनी ससुराल में चला जाता है। एक सप्ताह की छुट्टी लेकर और अपनी पत्नी को ले करके वापस अपने घर आ जाता है। इसी बीच सलामत खां दरबार में अमर सिंह की चुगली करता है। और राम सिंह उसको धिक्कारता है। जब अमर सिंह को इस बात का पता चला तो उसने सलावत खां को युद्ध के लिए ललकारा और युद्ध में सलावत का को मारकर राजपूतों की वीरता का परिचय दिया।

लैला मजनू सांग भी लोक प्रसिद्ध है। लड़का कैस और नजर अमीर की लड़की लैला मौलवी के पास पढ़ने जाते हैं। वहीं पर दोनों का प्रेम हो जाता है। जब मौलवी को इस बात का पता चला तो उसने दोनों को समझाने का प्रयास किया। नहीं मानने पर लैला की मां को सारा वृत्तांत सुना दिया। लैला की पढ़ाई बंद हो गई। जिसके कारण कैस (मजनूं) पागल सा होकर शहर की तरफ चल देता है। तलाश करता हुआ लैला के मकान के पास चला जाता है। उधर लैला मजनूं के इंतजार में खड़ी थी। मजनूं पर देख कर खुश हो गई। दोनों मिलते हैं तो लैला का बाप आकर पकड़ लेता है। कैस को जंगल में छोड़ देते हैं। दूसरी तरफ कैस का पिता उसको ढूंढता हुआ जंगल में जाता है और वहां देखता है कि कैस एक जगह पर रो रहा है। मजनूं का बाप सारा वृत्तांत सुनकर लैला के बाप से शादी की बात करने के लिए चलता है। शादी मंजूर हो जाती है। जब लैला का बाप कैस को देखने के लिए आया तो उसी एक कुत्ता आ गया। कैस  उसका मुंह चूमने लगा और कहने लगा ओ मेरी प्यारी लैला कितने दिन बाद मिली हो। यह दृश्य देखकर लैला का बाप शादी से इंकार कर देता है। लैला की शादी खुशबख्त के साथ कर दी जाती है। लैला ने रो-रो कर अपना जीवन समाप्त कर लिया। जब मजनूं को इस बात का पता चला तो उसने भी अपने प्राण त्याग दिए। दोनों को एक ही कब्र में दफना दिया गया।

लोककवि मांगेराम ने सांग साहित्य में भारतीय धर्म और दर्शन की जटिलताओं को आमजन की भाषा और शैली में प्रयुक्त करके उसे सुगम बनाया और पौराणिक कथाओं को हरियाणवी जीवन शैली में अभिव्यक्त किया है।

मांगेराम के सांगों में देव-दानव, पशु-पक्षी, नर-नारी, आबाल-वृद्ध, राजा-रंक, साधु-संत, वेश्या, ऋषि-महात्मा, रानी-दासी, माली-मालिन, नाई, ब्राह्मण, भटियारी आदि सब प्रकार के पात्रों को सांगों में समायोजित किया गया है। यहां तक कि ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इंद्र, चन्द्र, नारद और धरती तक को अपने सांगों में पात्र बनाए हैं। इनके सांगों में नायक एवं नायिका किसी भी वर्ग, जाति या धर्म के हो सकते हैं। बस उनमें लोकरंजन की क्षमता होनी चाहिए। इनके सांगों में नायक प्रथम-दर्शन, चित्र-दर्शन, चोपन-दर्शन यहां तक कि गुण-श्रवण से भी नायिका पर मोहित हो जाते हैं। इनके नायक नायिका को पाने के लिए राजपाट छोड़ देते हैं, अपने प्राणों की बाजी लगा देते हैं, साधु बन जाते हैं, पशु चुरा लेते हैं, लड़की के पिता के दरबारी बन जाते हैं, दानवों से टकरा जाते हैं, जादू के जरिए वेश बदल लेते हैं और अपने धर्म के पालन के लिए अपने प्राणों को न्योछावर कर देते हैं।

लोककवि पंडित मांगेराम ने ‘हूर मेनका’ सांग में मेनका एवं ऋषि विश्वामित्र के चरित्र की विशेषताओं को इस प्रकार एक अंकित किया है-

“मुरगाई सी तिरती फिरै हूर कुटी के आसपास

नाच-गाणा मेनका करै छोडडै इश्क की चास

पतला चीर चमकती चोटी हिलती चलै हवा रम कै

अटल समाधि लगी हुई सै कर रहया तप इसा जम कै।”[12]

किशन सुदामा सांग में जब सुदामा कृष्ण के दरबार में पहुंचता है तो द्वारपाल सुदामा का हुलिया बताते हुए कृष्ण से कहता है-

“भगत सुदामा नाम बतावै पाटे लत्यां आळा सै

एक लुटिया एक डोर हाथ मैं कांधे पै मृगछाला सै

हाथ लठौली, पैर खड़ाऊ पतरा पोथी लेरया सै

एक पहर का दरवाजे पै आपनै रूक्के मारै सै

चित्त भगती रस मैं भरया सै गळ तुलसी की माळा सै

बामण केसी सक्ल दीखती मेरे दिल मैं पक्की जमरी

कृष्ण कृष्ण रटण लग रहया नीत ठिकाणै थमरी।”[13]

मांगेराम सुदामा का किरदार बहुत दमदार तरीके से करते थे और आमजन यह कहते थे कि यो तै जमा आसली का सुदामा सै।

संवाद गढ़ने में भी मांगेराम हरियाणा की जनता के चितेरे थे। हीर-रांझा संवाद की बानगी देखते ही बनती है-

“रांझा- परै नै मरले तेरहा ताली।

हीर- दूध पी लिए पाळी,यो तेरे खात्तर ल्याई सूं।

रांझा- जहर घोळ राख्या होग्या। मनै मारण आई सै। लोक दिखावा प्रेम करै, मनै भकावण आई सै

हीर-तेरे तै प्यारा होर नहीं सै। तेरे जी की सूंह।”[14]

पंडित मांगेराम के सांगों में सभी प्रकार के संवादों का प्रयोग हुआ है। जिनमें उनका प्रबंध-कौशल, पौराणिक एवं व्यवहारिक ज्ञान, काव्य प्रतिभा, प्रसंग विधान आदि सब कुछ अद्वितीय है।

प्रस्तुतीकरण

मांगेराम का कद 6 फुट 3 इंच के करीब था व मजबूत शरीर होने के कारण उनका शारीरिक प्रभाव दूसरों की तुलना में अधिक था।  एक बुजुर्ग ने बताया कि लखमीचंद ने जब मांगेराम को कपड़े पहनने के लिए कहा(जनाना रोल करने के लिए) तो मांगेराम ने जवाब देते हुए कहा कि मैं जनाना बन गया तो मेरी बराबर में मर्द ठिगणे लगेंगे। इसी बात पर दोनों के बीच उकड़-तुकड़ हो गई। इसके बाद मांगेराम ने अपना अलग बेड़ा बना लिया। मांगेराम का शालीन स्वभाव उनके मंच पर भी विराजमान रहता था। बताया जाता है कि जब लखमीचंद के सांगियों में से एक थानेदार का किरदार करने वाला भाग गया था, लखमीचंद ने वो किरदार मांगेराम से करवाया था और उस किरदार के तौर पर पहली बार मांगेराम ने तुर्रे वाली पगड़ी (खंडवा) बांधी थी। जो उनकी पहचान का कारण बनी थी। एक तरह से तुर्रे वाली पगड़ी फिर उनका ट्रेड मार्क बन गया था। मांगेराम किरदार के अनुसार अपने पहनावे में परिवर्तन करते रहते थे। उनकी पगड़ी में तुर्रा उनकी विशेष पहचान थी। जो उन्हें दूसरे सांगियों से अलग करती थी। मांगेराम का रंग गेहुआ या साफ रंग था।

मांगेराम हर सांग के पात्रानुसार अपना पहनावा बदलते रहते थे। मांगेराम सांग करते हुए अपने हाथ में करीब साढ़े चार फुट का एक बैंत भी साथ रखते थे। जिस पर काले रंग का चमड़ा चढ़ा हुआ रहता था। रौबदार कद-काठी होने के कारण उनके हाथ में ये बैंत खूब जंचता भी था। मेकअप के नाम पर मांगेराम कुछ नहीं करते थे। राजा-महाराजा का किरदार करते हुए उनका ड्रेस कोड राजा-महाराजाओं जैसा लगे, इसके लिए वो फौजी या पुलिस वालों की तरह ईनाम में मिले तमगों को अपनी जैकेट पर लगा लिया करते थे। नेहरू की तरह तंग पजामी, कुर्ता और अचकन पर मैडल खूब दमकते थे। साथ में वो अपनी 3.2 बोर की पिस्टल भी टांग लिया करते थे। पिस्टल टांगने के बाद उनका दरोगा का पात्र पूरी तरह जीवंत हो उठता था। पारंपरिक पहनावे के अलावा आधुनिक ड्रैस के तौर पर वो पैंट भी पहन लेते थे। हीर-रांझा सांग में वो तहमंद, चैक का पंजाब स्टाइल का कुर्ता और सिर पर परणा बांधते थे, साथ में किक्कर  का टेढ़ा-मेढ़ा लठ रखते थे, पैर में नोंकदार जूत्ती और एकदम पैनी मूंछे उन पर पूरी तरह फिट बैठती थी। उनका व्यक्तित्व हर किरदार में रंग जमा देता था। सुदामा के रोल को करते वक्त वो अंग-रक्खा टाइप का देहाती व गरीब दिखने वाला वस्त्र पहनते थे।  जिसकी बाजुएं नहीं होती थी और आगे की तरफ दो जेब होती थी। बीच में कमीज की तरह बंटन नहीं होते थे, बल्कि दोनों तरफ रस्सियां सी होती थी, जिन्हें आपस में गूंथकर बांधते थे और नीचे मोटे खद्दर की लांगड़ निकालकर धोती पहनते थे। ऐसे रूप में साक्षात ऐसा लगते थे मानो सुदामा धरती पर उतर आए हैं। जैमल फत्ते सांग में बहुत साधारण कपड़ों में सांग करते थे और पित्तल की पिचकारी का प्रयोग करते थे। वो अपने सांगों का मंचन करते वक्त अधिक से अधिक जीवंत बनाने का सफल प्रयास करते थे। उनका मानना था कि जो संभव हो सके, वो साजो-सामान जुटा लेना चाहिए, क्योंकि कलाकरों को उपकरणों के साथ अभिनय करने में सुविधा हो जाती है। दर्शकों के भटकाव की संभावना कम हो जाती है। उनके सांगों की विषयवस्तु, कथावस्तु के साथ-साथ उनका मंचन भी यथार्थ धरातल के ज्यादा नजदीक होता था। मांगेराम नए-नए सांग रचने और मंचन पर अत्याधिक बल देते थे।

मांगेराम की प्रसिद्धि में उनकी मौलिक सांग रचना, सामाजिक सरोकारों व यथार्थ चित्रण में है। मंचन में प्रयोगधर्मिता उनकी सबसे बड़ी शक्ति रही है। उन्होंने भरसक प्रयास किए कि परिवेश व पात्रों को अधिक से अधिक यथार्थ एवं जीवंत बनाया जाए । मांगेराम पर अश्लीलता का आरोप कभी नहीं लगा। उन्होंने आजीवन सामाजिक सांगों को मंचन किया।

लखमीचंद और मांगेराम दोनों के बेड़ों में यूं तो दूसरे सांगी, साजिंदें, जनाना आदि बदलते रहते थे। एक तरफ लखमीचंद के परिवार ने सांग परंपरा को अपना पेशा बनाए रखा तो मांगेराम ने अपने परिवार को इस पेशे से दूर रखा। हालांकि परिवार को दूर रखने का मूल कारण क्या रहा होगा, यह ज्ञात नहीं है। दोनों समकालीन थे, परंतु शराब के सेवन ने लखमीचंद के जीवन को लील दिया। दोनों सांगियों में एक मूलभूत अंतर यह भी था कि मांगेराम ने अपने सांगों से अर्जित की धनराशि का इस्तेमाल सामाजिक कार्यों में खूब किया। उन्होंने गरीब परिवारों की शादियों, स्कूल निर्माण, जोहड़-कुएं आदि की खुदवाई में भी दान दिया। बताते हैं कि वो इस तरह के सामाजिक कामों के लिए सांग करने जाते थे तो सबसे पहले खुद दान देते थे। हालांकि लखमीचंद की तुलना में मांगेराम की आर्थिक हालत बेहतर बताई जाती है।

मांगेराम के बेड़े में से फिलहाल आटा-जौरासी के चतरू, फूले, जाटू लोहारी के राजेराम जीवित हैं। उनके बेड़े में जनाना रोल करने वाले थे- (टेकचंद) टेक्का नाई, जगदीश, कपूरा, सरूप, मसीता, चतरू, फूले, राजेराम, मदनलाल, सुरजभान, बुद्धुराम बरोणा आदि। मांगेराम की मृत्यु के बाद इनमें से कई प्रसिद्ध सांगी हुए। जयनारायण उनके भजनी रहे हैं, इन्होंने केवल हारमोनियम बजाया और भजन गाए। मांगेराम को खुद साजिंदें बजाने का भी शौक था। हारमोनियम तो वो कभी बजा नहीं पाए, एकतारा में वो सिद्धस्त थे। जबकि पात्रानुसार बांसुरी, सारंगी, ढोलक, नगाड़े भी बजा लेते थे। गायकी में लखमीचंद से कमत्तर ही माने जाते थे। लखमीचंद की आवाज उनकी सबसे बड़ी ताकत थी। जिसके कारण सोहनलाल कुंडल वाले बेड़े में उन्हें शुरू में जनाना की भूमिका दी गई थी। गुरु से मतभेद होने के कारण उनके किसी चेले ने उनके खाने में जहर या पारा दे दिया था। जिसके कारण उनकी आवाज खराब हो गई थी और वो मरते-मरते बचे थे। बताते हैं कि उन्होंने नीचे कुएं में उतरकर रियाज करके अपनी आवाज को ठीक किया। परंतु पहले वाली बात नहीं रही थी। पुरानी पीढ़ी के बुजुर्गों से बात की तो उन्होंने बताया कि मांगेराम नहीं होते तो लखमीचंद लखमीचंद कभी नहीं बन पाते। इस बात में कितनी सच्चाई है और कितनी अतिशयोक्ति यह कहना मुश्किल है।

वर्तमान समय में उनके सांगों प्रासंगिकता

सदियों से मौखिक या वाचिक परंपरा में विद्यमान ज्ञान, जो प्रचलित मान्यताओं, परंपराओं और पीढ़ियों द्वारा प्रदत्त ज्ञान होता है उसे लोकसाहित्य कहते हैं। इसे लोकचेतना का साहित्य भी कहा जाता है। यह लोक जीवन का जीवित एवम् सशक्त माध्यम है। लोक साहित्य हमारे लोक के अनुभवों का खजाना है। मांगेराम के समस्त सांग साहित्य के माध्यम से हरियाणवी समाज की अंदरूनी और बाहरी नब्ज़ टटोलने का भूरपूर मौका मिलता है। जीवन की सामान्य दिखने वाली घटनाओं और पारिवारिक घटनाक्रमों के बीच पसरे जीवन-दर्शन से आमजन अपने जीवन को दिशा देते रहे हैं।

भारत के प्राचीन मनीषियों का यह मत रहा कि प्रत्येक मनुष्य को इतना बुद्धिमान और नीतिमान होना चाहिए कि वह संसार में अपने हित अहित को समझ सके और उचित-अनुचित को परखकर व्यवहार कर सकें। मांगेराम के समस्त लोक साहित्य की रचना प्रक्रिया का यह केंद्रीय तत्त्व रहा है। नीति शास्त्र और धर्मशास्त्र पर्यायवाची शब्द हैं। वैदिक परिभाषा में धर्म शब्द का अर्थ धारण करता हुआ है। अतः धर्म शास्त्र या नीति शास्त्र में चारों वर्णों की सुरक्षा और राजनीति का सविस्तार से वर्णन किया गया। इन सभी को हूबहू रूप में लोककवि मांगेराम ने भी स्वीकार किया है।

लोककवि मांगेराम के लोक साहित्य में अपने समाज की तमाम सत्ताओं के मानकों को रूढ़िबद्ध एवं प्रतिबद्ध तरीके से  स्वीकार किया है। नीति शास्त्र और धर्म शास्त्र दोनों बहुत ही महीन तरीके से अपने मूल्यों को मनुष्य की कर्म पद्धति और जीवन पद्धति में पिरो देते हैं। रॉबर्ट डाहल के शब्दों में कहें तो- अगर कोई किसी से अपनी मर्जी के आधार पर कुछ ऐसे काम करवा सकता है। जो वह अन्यथा नहीं करता। तो इसे एक व्यक्ति की दूसरे पर सत्ता की संज्ञा दी जाएगी। पारंपरिक समाजों में पारिवारिक सत्ताओं का हस्तांतरण इसी प्रक्रिया के तहत किया जाता रहा है। स्टीवन ल्यूक्स के अनुसार-सत्ता का मतलब निर्णय लेने का अधिकार अपनी मुट्ठी में रखने की क्षमता। सत्ता का मतलब है राजनीतिक एजेंडे को अपने पक्ष में मोड़ने के लिए निर्णयों के सार को बदल देने की क्षमता और सत्ता का मतलब है लोगों की समझ और प्राथमिकताओं से खेलते हुए उनके विचारों को अपने हिसाब से नियंत्रित करने की क्षमता।

निष्कर्ष

लोक संस्कृति की अवधारणा सामाजिक विज्ञान की जटिलतम अवधारणाओं में से एक मानी जाती है। क्योंकि लोक संस्कृति में रीति रिवाज, आदतें, मानसिकताएं जैसे लक्षण शामिल होते हैं, जिनकी मात्रात्मक परख कठिन है। दरअसल लोक संस्कृति का केंद्र बिंदु समुदायों की साझी प्रवृतियां हैं, वे चाहे गौरवशाली हो या सोचनीय। संस्कृतियों के अध्ययन में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं का विश्लेषण किया जाता है।

मूलतः संस्कृति का अध्ययन दो अलग-अलग कसौटियों किया जा सकता है- एक और है कलात्मक एवं बौद्धिक परिष्कार की कसौटी, तो दूसरी ओर हैं ऐतिहासिक रूप से अपनाई गई लोकप्रिय परंपराओं की कसौटी। जिसे पुनः दो स्तरों पर पहचाना जा सकता है भौतिक वस्तुओं के स्तर पर तथा आचार एवं मूल्यों के स्तर पर।

मोटे तौर पर मानसिकताओं से तात्पर्य उन सोच पद्धतियों या विचार एवं भाव शैलियों से है जो किसी समाज के सदस्यों में व्यापक रूप से महसूस की जाती हैं और जिनकी अभिव्यक्ति उस समुदाय के सांस्कृतिक प्रतीकों एवं गतिविधियों जैसे रीति-रिवाजों, साहित्यिक कृतियों तथा जन आंदोलनों के तरीकों तक में देखी जा सकती हैं। हालांकि चेतन तथा अवचेतन स्तर पर सोच तथा भावनाओं के कई रूप रहते हैं लेकिन समाजशास्त्रियों एवं इतिहासकारों के लिए जो मानसिकताएं सर्वाधिक प्रासंगिक हैं, वे व्यापक एवं सामूहिक होंगी न की पूर्णतया व्यक्तिगत या क्षणिक। इससे हमारा तात्पर्य यह नहीं है कि सोच के व्यक्तिगत पहलू को नकार दिया जाए। बल्कि यह है कि ऐतिहासिक महत्व की सोच काफी हद तक हर समुदाय की सांझी विरासत एवं वर्ग संरचना से प्रभावित होती है। कोई भी व्यक्ति स्वयं अपनी भाषा अपनी प्रौद्योगिकी या मूल्यों एवं विश्वासों को अकेले विकसित नहीं करता। मानसिकताओं के अध्ययन का संबंध इन्हीं साझे मूल्यों, विश्वासों, रुचियों इत्यादि से है। जिनका मूल्यांकन एक ही समुदाय के भिन्न-भिन्न वर्ग अलग ढंग से कर सकते हैं और जिनकी साझी विरासत को एक समुदाय के सभी सदस्यों के लिए स्पष्ट से पहचानना संभव होता है।

किसी भी सांस्कृतिक अध्ययन में मानसिकताओं के विभिन्न पहलू विचारणीय होते हैं। जिनमें विश्वास एवं नजरिए, मूल्य या आदर्श, सामुदायिक पहचान एवं निष्ठाएं, सौंदर्यबोध एवं अभिरुचियां तथा समुदायों की मनोवैज्ञानिक विशिष्टताएं एवं भावाभिव्यक्तियाँ। सांस्कृतिक अध्ययन में सर्वाधिक महत्व रखती हैं पाप पुण्य की संकल्पना, आदर्श समाज की संरचना, प्राकृतिक तथा अलौकिक जगत एवं इतिहास या काल की समझ जैसे गहन प्रश्न।

यदि समाज की नियति कमोबेश उसकी सांस्कृतिक प्रवृत्तियों पर निर्भर करती है तो समाजशास्त्रियों के लिए विश्व की विभिन्न संस्कृतियों की विशेषताओं को समझना और साथ ही नियोजित सांस्कृतिक बदलाव की संभावनाओं को तलाशना बेहद जरूरी है। वैश्वीकरण के दौर में पश्चिम के नकारात्मक पहलू जितनी सरलता से हमारी परंपराओं और संस्कृतियों को आघात पहुंचा रहे हैं उतनी आसानी से सामाजिक समानता, प्रजातंत्र तथा मानवतावाद के आधुनिक आदर्श जातीयता से ग्रस्त हमारी सभ्यता को प्रभावित नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में बेहद जरूरी है कि हम आज लोक संस्कृति को वांछित रूप से नई दिशा देने के जरिए को ढूंढने का व्यवस्थित प्रयास करें।

सूचना क्रांति, भूमंडलीकरण, इंटरनेट क्रांति और बाजारवाद आदि की जद्दोजहद ने मानवीय संस्कृति को आर्थिक संस्कृति में बदल दिया है। क्योंकि यह हर कला, साहित्य, संस्कृति और विचार को वस्तुवादी रूप से देखती है तथा मानवीय चेतना पर वस्तुवादी चेतना को आरोपित कर रही है। जिसके कारण सामाजिक संरचना और मूल्यों के स्तर पर काफी परिवर्तन हो रहे हैं। क्योंकि इन्होंने लोक संस्कृति को भी व्यवसायिक उत्पाद में बदल दिया है। जिसके कारण बुद्धिजीवी वर्ग में इसको लेकर चिंताएं और विमर्श लगातार बढ़ते जा रहे हैं। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हरियाणवी लोक कवि लखमीचन्द व मांगेराम आदि के साहित्य का मूल्यांकन आवश्यक हो जाता है।

 नीरस बौद्धिक ज्ञान की तुलना में समस्त लोक साहित्य रोचक कथात्मक बौद्धिक ज्ञान होता है, जो अपनी उर्जा लोक से प्राप्त करता है। लखमीचन्द व मांगेराम के लोकसाहित्य अर्थात सांग साहित्य में धार्मिक, पौराणिक व धर्मेतर आदि कथाओं के माध्यम से उस समय के समाज का चित्रण किया गया है तो दूसरी तरफ आदर्शों व मूल्यों आदि को भी स्थापित किया गया है। भारतीय जनमानस में धार्मिक विश्वासों की जड़ें गहरी हैं। यहां विवाह, परिवार और समाज जैसी संस्थाओं को व्यापक मान्यता और स्वीकृति मिली हुई है। बहुविध क्षेत्रीय भाषाओं और संस्कृतियों का व्यापक अस्तित्व और इन सभी कारणों से जीवन के प्रति विश्वास, आस्था और श्रद्धा का भाव सारी निराशा, हताशा, संघर्ष और विफलता के बावजूद प्रौद्योगिकी प्रदत्त विश्वास के समानांतर खड़े होकर उत्तर आधुनिकता की पूर्ण प्रतिष्ठा में बाधा बनता है।

लोक संस्कृति और साहित्य की प्रासंगिकता पर विचार आज इन्हीं वर्तमान संदर्भों में अधिक आवश्यक हो गया है। लोक संस्कृति और साहित्य आज इसलिए मूल्यवान और सार्थक इसलिए नहीं है कि वह वर्तमान के आसन्न संकटों से पलायन कर किसी तात्कालिक रोमांटिक  क्षणों में पहुंचाने में समर्थ है। अपितु इसलिए भी कि लोक साहित्य जनजीवन का प्रतिनिधित्व उसके सारे उतार-चढ़ाव के साथ करने का सामर्थ्य रखता है। लोक साहित्य और संस्कृति अपनी क्षेत्रीयता के अंतर्गत जिस भौगोलिक और समाजशास्त्रीय वास्तविकता को प्रस्तावित करते हैं वहीं लोगों का मनोविज्ञान भी धारण करते हैं। वह एक और अपने आप में स्वतंत्र अध्ययन का विषय है तो दूसरी ओर अनदेखी महत्वपूर्ण संभावनाओं के द्वार खोलने में भी समर्थ है।

तकनीक क्रांति और सूचना क्रांति के युग में जहां हम एक तरफ सोशल मीडिया से घिरते जा रहे हैं और उतना ही सेल्फ से दूर होते जा रहे हैं। क्योंकि समाज आत्मकेंद्रित और आत्ममुग्ध होता जा रहा है। जिसके कारण अपराध, उन्माद, अस्थिरता, उत्तेजना, तनाव और अस्मिता के संकट आदि का सामना दिन-प्रतिदिन जीवन में करते हुए भयभीत भी होते जा रहे हैं। इन स्थितियों की पृष्ठभूमि का गहन सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए क्या हमें प्रकृति, पर्यावरण और मनुष्य के पारस्परिक संबंधों पर विचार नहीं करना चाहिए? ऐसी परिस्थितियों में लोक साहित्य हमें अपनी जड़ों से जोड़ने के साथ-साथ हमारी सामूहिक चेतना को समृद्ध भी करता है।

लोक साहित्य में स्थानीयता और पारंपरिक मूल्यों पर जोर रहता है। ऐसे में क्षेत्रीयता और स्थानीयता अपनी बोलियों, भाषाओं और सांस्कृतिक विशिष्टताओं के साथ व्यक्ति के व्यक्तित्व को संपन्न और सशक्त करती है। साथ ही समाज को उसकी समकालीन वास्तविकताओं के साथ जागरूक चेतना नागरिक निर्माण में अहम् भूमिका निभाती है। लखमीचंद और मांगेराम आदि के लोक साहित्य की संरचना में समकालीन दृष्टि और चेतना का यथार्थवादी और आदर्शवादी दोनों रूपों में चित्रण हुआ है, उस समय की सीमाओं और शक्तियों का वर्णन भी इनके लोक साहित्य में मौजूद है।

निःसंदेह लखमीचंद और मांगेराम आदि लोककवियों के  लोक साहित्य और संस्कृतियों के लिए आज सबसे बड़ा संकट बाजारवाद है, लोग अपने भौतिक सुख और आर्थिक लाभ के लिए लोक कला और संस्कृति को फैशन और प्रदर्शन की वस्तु में बदल डालना चाहते हैं। मनुष्य की अर्थवान अस्मिता को प्रस्तुत करने की प्रबल क्षमता लोक साहित्य और संस्कृति में विद्यमान है। इसके दो कारण बहुत स्पष्ट हैं एक तो लोक साहित्य और संस्कृति समूह व समुदाय के भीतर से व्यक्ति की अस्मिता को उभारती है, तो दूसरी तरफ सामुदायिक शक्ति को रेखांकित करती है। यह विवेक को विकसित करती हुई ताकि मनुष्य अर्थहीन और अनावश्यक को छोड़कर प्रासंगिक और मूल्यवान को जोड़कर आगे बढ़ जाने की योग्यता  प्राप्त कर सके। दरअसल अपनी परंपरा की सार्थकता से समृद्ध अस्मिता और वर्तमान में खड़ा सुदृढ़ अस्तित्व मनुष्य की स्वाधीनता के साथ उसकी मूलभूत पहचान है।

उपभोक्तावादी संस्कृति में दर्शक और ग्राहक की अवधारणा भी पर भी बहस छिड़ने लगी है। नाट्यशास्त्र भारतीय प्रदर्शन कला को विश्व की दूसरी कलाओं से विशिष्ट बनाता है। कलाकार और दर्शकों के बीच के दो तरफा संबंधों का खुलासा इन दो शब्दों में हो जाता है। जो न केवल संवेदनात्मक, भावनात्मक या दिमागी है, बल्कि व्यवसायिक भी है। कस्टमर यह शब्द हमें परेशान करता है। जब एक नाचने वाली लड़की कहती है कि उसके कस्टमर है। हम अपने आप मान लेते हैं कि वह वेश्या होगी। हम में से अधिकांश मानते हैं कि एक कलाकार के दर्शक हो सकते हैं लेकिन कस्टमर नहीं। हालांकि एक कलाकार खरीदारों के साथ आर्थिक लेन-देन करता है लेकिन फिर भी हम यह नहीं मानते कि कोई ग्राहक कला का उपभोग कर सकता है।

शुद्ध कला और व्यावसायिक कला के बीच भेद करके कला को अध्यात्मिक दर्जा दिया जाता है। यह अतिधर्मनिष्ठतावाद का परिणाम है। जो विक्टोरियाकालीन मान्यताओं के साथ-साथ बौद्ध, जैन, हिंदू मठवासी मान्यताओं का मिश्रण है। इनके अनुसार लोगों को बिगाड़ने की मुख्य वजह पैसा है। आनन्द का भी लेनदेन किया जा सकता है। यह विचार लोगों को और परेशान करता है। आनन्द को भी एक वस्तु की तरह बाजार में बेचा जा सकता है। एक कलाकार दर्शकों के संवेदनात्मक, भावनात्मक, दिमागी और यहां तक कि शारीरिक भूख को संतुष्ट करने के लिए मौजूद है। कौन सी भूख उचित है, इसका निर्धारण कौन कर सकता है? कलाकार न केवल भूख को संतुष्ट करता है वह ग्राहक की कला की समझ को सुधारने के लिए भी बाध्यकारी होता है। इस प्रकार कुछ कलाकार जो केवल वही कला प्रदर्शित करते हैं जो दर्शक चाहते हैं। ये निचले स्तर के कलाकार कहे जाते हैं। उच्च स्तर के कलाकार दर्शकों का स्तर ऊपर उठाते हैं। दर्शक ना सिर्फ उनकी कला के लिए तरसते हैं बल्कि उनसे और उत्कृष्ट कला की अपेक्षा करते हैं।  लेकिन कलाकार गुजारा कैसे करता है? पैसे के जरिए। सहायता के जरिए। ब्रिटिश लोगों द्वारा टिकट और अमेरिकियों द्वारा स्पॉन्सर सिस्टम शुरू होने से पहले भारत में बख्शीश की व्यवस्था हुआ करती थी। कला के प्रति दिया गया पारिश्रमिक। लेन-देन का यह सिद्धांत जिसमें दो तरफा रिश्ता स्थापित होता है। यज्ञ और पूजा के अनुष्ठान में भी पाया जाता है। यज्ञ में देवता का आह्वान किया जाता है और स्वाहा कहकर उन्हें भोग लगाया जाता है। इसके साथ ही यह यजमान अपेक्षा करता है कि तथास्तु कहकर देवता उसकी मनोकामना पूरी करेंगे। पूजा में भक्त भोग प्रदान करता है और अपेक्षा करता है कि देवता उसे प्रसाद देंगे। उसी तरह रंगमंच की मदद से गुजारा करने के लिए यह जरूरी है कि कलाकार अपने कस्टमर को संतुष्ट रखें। दर्शकों की असंतुष्टि के बावजूद कलाकार से उम्मीद भी की जाती है कि वह लगातार उन्नति भी करता रहे।

लोक-कलाएं, लोक-संस्कृति और लोक-साहित्य बाजार की बिकाऊ वस्तुएं नहीं हैं। सभी गंभीर संभावनाओं को धारण करने वाली अवधारणाएं हैं। जिनका उपयोग रचनात्मकता से किया जाना चाहिए। लोक भाषाओं में बिखरे हुए मूल्यवान शब्द भंडार का उपयोग भाषा की समृद्धि के लिए किया जाना चाहिए। मूलतः लोक-साहित्य समाज-निर्माण, मूल्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण आदि में अहम् भूमिका निभाता है।

हरियाणवी लोक साहित्य और संस्कृति को एक विशिष्ट ऐतिहासिक प्रक्रिया में मूल्यांकन करने पर भी ही उसके मूल्यों और महत्त्व को बेहतर समझा जा सकता है। लखमीचंद और मांगेराम आदि का लोक साहित्य का उपयोग सामाजिक नियंत्रण और स्वतंत्रता दोनों साधनों के रूप में किया जाता रहा है।


 

संदर्भ सूची

[1]  पं. मांगेराम ग्रंथावली, डॉ. पूर्णचंद शर्मा, पृ. 116, हरियाणा ग्रंथ अकादमी, पंचकूला, प्रथम संस्करण-2013

[2]   वहीं, पृ. 127

[3]  वहीं, पृ. 128

[4]  वहीं, पृ. 128

[5]  वहीं, पृ. 137

[6]  वहीं, पृ. 162

[7]  वहीं, पृ. 181

[8]  वहीं, पृ. 190

[9]  वहीं, पृ.192

[10]  वहीं, पृ. 214

[11]  वहीं, पृ. 225

[12]  वहीं, पृ.57

[13] वहीं, पृ.58

[14] वहीं, पृ 60

सहायक ग्रंथ

लोकनाट्य सांग: कल और आज, डॉ. पूर्णचंद शर्मा,   हिंदी साहित्य निकेतन, बिजनौर(यूपी), प्रथम संस्करण-2015

हरियाणा लोक साहित्य: सांस्कृतिक संदर्भ, डॉ. भीमसिंह मलिक, हरियाणा साहित्य अकादमी, चंडीगढ़, संस्करण-1990

हरियाणवी लोक साहित्य का सामाजिक अध्ययन, डॉ. जयप्रकाश शर्मा,  हरियाणा ग्रंथ अकादमी, पंचकूला, द्वितीय संस्करण-2016

सामाजिक चिंतन, डॉ. टी. एम.डक,  हरियाणा साहित्य अकादमी, चंडीगढ़, संस्करण-1991

समाज विज्ञान विश्वकोष, सं. अभय कुमार दुबे,   राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पहला संस्करण- 2013