पॉप और पॉपुलर कल्चर की परिभाषाएं (Pop or Popular Culture Definition)

Pop or Popular Culture Definition पॉपुलर कल्चर की व्याख्याएं

Pop or Popular Culture Definition पॉप कल्चर के लिए हिंदी में ‘लोकप्रिय संस्कृति’, पॉपुलर कल्चर और ‘जनप्रिय संस्कृति’ भी कहा जाता है। क्या तीनों को एक माना जा सकता है या तीनों में काफी बड़ा अंतर है। अगर अंतर है तो वह क्या है। इन सभी सवालों के साथ पॉपुलर कल्चर को कैसे परिभाषित एवं व्याख्यायित किया जा सकता है। इन सभी सवालों के जवाब इस लेख में ढूंढने की कोशिश करेंगे। दरअसल पॉपुलर कल्चर अर्थात् लोकप्रिय संस्कृति शब्द 19वीं सदी में गढ़ा गया था। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद मास मीडिया ने सांस्कृतिक और सामाजिक क्षेत्र में एक नई क्रांतिकारी भूमिका अदा की थी। इस सांस्कृतिक और सामाजिक परिवर्तन में सबसे अग्रणी पश्चिमी देश रहे।

हिंदी में लोक की अवधारणा लोक संस्कृति, लोकगीत, लोक गाथा एवं लोक साहित्य आदि से जुड़ी है। इन लोक सांस्कृतिक रूपों के पास अपने मिथक, रुढ़ि, विश्वास, प्रथाएँ एवं परंपराएँ होती है। इनकी सर्वप्रमुख विशेषता एक निश्चित स्थान विशेष तथा समूह विशेष की विशेषताओं को अपने गीतों व कथाओं में व्यक्त करना है। इसके विपरीत लोक के साथ ‘प्रिय’ विशेषण जुड़ जाने से इसके अर्थ व संदर्भ दोनों बदल गए हैं। लोकप्रिय संस्कृति किसी स्थान विशेष से नहीं जुड़ती व ग्लोबल होने में अपनी सार्थकता रखती है।

पॉप और पॉपुलर कल्चर की परिभाषाएं (Pop or Popular Culture Definition)

‘पॉप’ शब्द ‘पॉपुलर’ से बना है, जिसका सीधा अर्थ है हिट होना, अचानक बाजार में छा जाना, लोगों की याद में आ जाना, उसकी नकल करना वाले अनेक फैन, लोकप्रिय हो जाना।[1]

जॉन टोरी ने ‘कल्चर एंड थ्योरी एण्ड पॉपुलर कल्चर’ पुस्तक में लिखा है कि “सांस्कृतिक उत्पादनों जैसे-संगीत, नृत्य, साहित्य, कला, फैशन, फिल्म, टी.वी., रेडियों के प्रयोग के ऐसे संग्रहीत भण्डार को लोकप्रिय संस्कृति कहता है, जिसका उपभोग प्रमुख्य़तः अभिजन समूहों के अतिरिक्त निम्नवर्गीय कामगार समूह तथा मध्यवर्ग के एक द्वारा किया जाता है लोकप्रिय संस्कृति और उच्च संस्कृति में एक महत्त्वपूर्ण अंतर पाया जाता है। उच्च संस्कृति में शास्त्रीय संगीत, नृत्यकला, गंभीर प्रकृति के उपन्यास, कविताएँ, कहानियाँ तथा अन्य सांस्कृतिक उत्पादन होते है, जबकि लोकप्रिय संस्कृति का क्षेत्र अधिक व्यापक होता है और प्रत्येक को आसानी से उपलब्ध हो जाती है।”[2]

  लोकप्रियता (Pop or Popular Culture Definition) को परिभाषित करते हुए ब्रेस्ट ने लिखा है कि “लोकप्रिय वह है जो व्यापक जनता के लिए सुबोध हो, जिसमें जनता के बीच प्रचलित अभिव्यक्ति के रूपों का उपयोग और विकास हो, जनता के दृष्टिकोण को स्वीकार करते हुए उसे सुदृढ़ बनाया गया हो, जनता के सर्वाधिक प्रगतिशील हिस्से को इस रूप में प्रस्तुत किया गया हो कि वह समाज  में नेतृत्व का दायित्व संभाल सके और उसमें परंपरा का बोध और विकास हो।”[3]    

टी.डब्ल्यू. एडर्नों ने लिखा है कि “आज सांस्कृतिक सामग्रियों का व्यावसायिक उपयोग धारा प्रवाह हो गया है और व्यक्ति पर लोकप्रिय संस्कृति (Pop or Popular Culture Definition) की छाप गहराती जा रही है। यह प्रक्रिया मात्रा के दायरे में कैद नहीं रह गई है बल्कि इसने नई गुणवता को जन्म दिया है। वैसे की लोक संस्कृति ने पूर्ववर्ती संस्कृति के तमाम तत्वों को अपना लिया है खासकर नकारात्मक तत्वों को।”[4]

एडर्नों ने ‘संस्कृति  उद्योग’ शब्द का प्रयोग करते हुए लिखा कि “संस्कृति खुले रूप से और विद्रोही तेवर के साथ एक उद्योग बन गई है, जो अन्य उद्योगों की तरह उत्पादन के नियम का पालन करती है। सांस्कृतिक उपादन संपूर्णता में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का एकीकरण अंग है। संस्कृति अब दोषमुक्त भविष्य की शर्त पर वर्तमान की गंभीर समझ द्रका खजाना नहीं रही। संस्कृति उद्योग वर्तमान के विकृत कल्पनालोक में विचरण के नाम पर आनंद की वचनबद्धता का परित्याग कर देता है। यह वर्तमान की व्यंग्यात्मक प्रस्तुति है।”[5]

“पॉपुलर कल्चर (Pop or Popular Culture Definition) को लेकर विद्वानों में दो तरह का नजरिया देखने को मिलता है पहला नजरिया यह मानकर चलता है कि पॉपुलर कल्चर के अंदर जाकर काम करो। दूसरा नजरिया पॉपुलर कल्चर को हल्के-फुलकेपन के कारण आए दिन धिक्कारता रहता है।”[6] फ्रैंकफर्ट संप्रदाय के लोगों ने भी उसकी आलोचना करते हुए डायलेक्टिक्स ऑफ ऐनालाइटमेंट में ही पहली बार संस्कृति उद्योग की अवधारणा प्रतिपादित हुई। इसमें मास-कल्चर के उत्पादन की प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए दिखाया गया है कि “यह ऐसी संस्कृति है जो पूंजीवाद के परवर्ती चरण के बीच जन्म लेता है। रेडियो-टी.वी. के रूप में मास मीडिया वस्तु से अधिक पूंजीवादी जीवन-शैली का प्रचार करता है और व्यक्ति की सांस्कृतिक स्वायत्तता नष्ट होती चली जाती है। इस प्रकार मास कल्चर व्यक्ति के मानस व जीवन-शैली को पूरी तरह नियंत्रण में लेती है।”[7]

एडर्नो और होर्खिमेयर ने ‘संस्कृति उद्योग’ का प्रयोग ‘पॉपुलर कल्चर’ और ‘मास कल्चर’ का विरोध करने के लिए किया है। वे इस धारणा का विरोध करता हैं कि ‘मास कल्चर’ के उत्पादनों का जन्म जनता से होता है। उन्होंने देखा कि इसे संस्कृति उद्योग संचालित कर रहा है। ऊपर से आरोपित कर रहा है। वह मतारोपण और सामाजिक नियंत्रण का उपकरण हो गया है। वह संस्कृति अर्थ परंपरागत रूप में लेते है। उनका मानना है कि जन-माध्यमों के द्वारा परंपरागत श्रेष्ट संस्कृति को नष्ट किया जा रहा है।

 एस. हाल ने लिखा है कि यह “संस्कृति की आम तौर पर अवशिष्ट और प्रतिबिंबित करने वाली भूमिका का विरोधी है। अपने भिन्न दृष्टिकोण की संगीत में यह संस्कृति को अन्य सामाजिक गतिविधियों से जोड़कर देखता है और ये गतिविधियाँ मनुष्य की सामान्य गतिविधयाँ होती हैं। यह धारणा आदर्शवादी और भौतिकवादी शक्तियों के आपसी संबंधों को आधार एवं अधिरचना के संबंधों के रूप में नहीं देखती। खास तौर पर उस अर्थ में तो बिल्कुल नहीं जहां आधार की परिभाषा अर्थशास्त्रीय हो। यह ‘संस्कृति’ की परिभाषा साधन और मूल्य दोनों रूपों में करते हैं, जो विशिष्ट सामाजिक समूहों और वर्गों की पैदाइश होता है, जो ऐतिहासिक स्थितियों और संबंधों के अनुसार अपने अस्तित्व की स्थितियों को संभालते और उनके प्रति अपना नजरिया तय करते है।”[8]

फ्रैंकफर्ट समुदाय के चिंतकों का मानना है कि ‘संस्कृति उद्योग अपने उपभोक्ताओं को लगातार ठगता है। जो वायदा करता है उसे कभी पूरा नहीं करता है। अंतहीन मनोरंजन का वायदा करता है और उसके यथार्थ बिंदु तक कभी नहीं पहुँचता। इसकी कोशिश यही होती है कि वह भीड़ को संतुष्ट करे। बड़े-बड़े सितारों और व्यक्तित्वों की इमेजों को संप्रेषित करते हुए रोजमर्रा के हतोत्साहित करने वाले जीवन से पलायन करता है।”[9]

डॉ. मैनेजर पांडेय ने फ्रैंकफर्ट समुदाय के चिंतकों के बारे में लिखा है कि “पूंजीवादी युग में कला अंतर्दृष्टि ही नहीं देती, वह छद्म चेतना भी पैदा करती है। एडोर्नो और हर्बर्ट मारकुज ने कला के स्वदर्शी प्रयोजन को महत्त्व दिया। वे सौंदर्यबोधीय कल्पना को मुक्तिधर्मी मानवीय शक्ति मानते हैं उन्होंने भ्रमवश जनकला और बाजारु कला को एक मान लिया। लोकप्रियता को कला की सार्थकता का दुश्मन घोषित कर दिया। ये लोग मानते हैं कि पूंजीवादी समाज भीड़ का समाज है। उसकी संस्कृति भीड़ की संस्कृति है और कला भी भीड़ की कला है। इस समाज में मनुष्य एकायामी जीवन जी रहा है संस्कृति सर्जना नहीं, एक उद्योग बन गई है। जो बर्बरता, अर्थहीनता, सहमति, ऊब, उदासी, और यथार्थ से पलायन को बढ़ावा देती है। ऐसा समाज, संस्कृति, कला, और व्यक्ति की स्वायत्तता को नष्ट करता है। भीड़ की संस्कृति में कला की स्वायत्तता के साथ-साथ कल्पनाशीलता और आलोचनात्मक चेतना का नाश हो गया है। कला बाजार की वस्तु बन गई है। ऐसे समाज में सच्ची कला केवल आवांगार्द कला हो सकती है, जो भीड़ के समाज, संस्कृति, कला और भाषा को अनूठा दिखाती हुई अपनी स्वतंत्रता ,की रक्षा करती है।”[10]

रेमंड विलियम्स ने लोकप्रिय संस्कृति (Pop or Popular Culture Definition) का अर्थ ऐसी सांस्कृतिक वस्तु माना है जिसे श्रेष्ठ संस्कृति की तुलना में घटिया कहा जाए। यह ऐसी रचना है, जो सचेत से जनता में लोकप्रियता प्राप्ति का लिए रची जाती है।

लोकप्रिय संस्कृति (Pop or Popular Culture Definition) के कला को ऐसे प्रतीकों के रूपों में देखा जाता है, जो निम्न श्रेणी के होते हैं। रेडियो से प्रसारित होने वाले गाने सुनना बेहूदा और संस्कृति विहीन कार्य माना जाता है। फिल्मों को भी निम्न कला का रूप माना जाता गया। आज हम प्रत्यक्ष देख रहे रेडियो की लोकप्रियता घटने के बजाए विभिन्न एफ.एम.चैनलों का रूप अनेक चैनल हमारी सामने आ रहे है। इसी तरह फिल्मों आज लोकप्रियता की पराकाष्ठा पर पहुँच चुकी है साथ ही सामाजिक सांस्कृतिक क्षेत्रों के अध्ययन-अध्यापन के लिए भी फिल्मों की समीक्षा की जा रही है। आज यह सर्वविदित हो चुका है कि पॉपुलर कल्चर किसी भी सांस्कृतिक दायरे से अधिक विस्तृत है। कारण इसने हमारी ही संस्कृति के भिन्न-भिन्न रूपों को हमारे सामने प्रस्तुत किया क्योंकि इस संस्कृति के निर्माता बड़े पूंजीपति देश है जो संस्कृति को भी एक उद्योग के रूप में प्रचारित-प्रसारित कर रहे है।

बेजामिन का मानना है कि पॉपुलर कल्चर जीवन का संस्कार करने वाली रही हैं, लोगों ने उसे और उसमें से बहुत कुछ चुना है। सब कुछ नकारात्मक होता तो उसे आनंद का कारण न समझते। अतः इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि पॉपुलर कल्चर में न तो सब कुछ बढ़िया होता है और न ही सब कुछ खराब होता है। पॉपुलर कल्चर के भीतर नकारात्मक एवं सकारात्मक पक्षों के साथ अपने समय के जरूरी सवाल एवं विमर्श भी होते हैं। जिनके भीतर की बेचैनी और सवालों से टकराए बगैर पॉपुलर कल्चर का अध्ययन और विश्लेषण संभव नहीं है।


[1] संपादक जितेंद्र यादव, ‘अपनी माटी’ ई-पत्रिका ,वर्ष-2,अंक-22

 [2] जे.पी.सिँह, सामाजिक विज्ञान कोश 2008, पृ.471-472

[3]  मैनेजर पाण्डेय, साहित्य और समाजशास्त्रीय दृष्टि, पृ.331-332

[4]  टी. डब्ल्यू. एडर्नों संस्कृति उद्योग, ग्रंथ शिल्पी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.15

[5]  टी. डब्ल्यू. एडर्नों संस्कृति उद्योग, ग्रंथ शिल्पी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.15                                             

[6]  अपनी माटी, चितौड़गढ़, ई-पत्रिका,वर्ष-2, अंक-22,

[7]  संपादक अभय कुमार दुबे, समाज विज्ञान विश्वकोश, खण्ड 3, पृ.981

[8]  जगदीश चतुर्वेदी एवं सुधा सिहं, जनमाध्यम सैद्धांतिकी, अनामिका प्रकाशन नई दिल्ली, पृ.83                  

[9]  जगदीश चतुर्वेदी एवं सुधा सिहं,  जनमाध्यम सैद्धांतिकी, अनामिका प्रकाशन नई दिल्ली, पृ.113                   

[10]  जगदीश चतुर्वेदी एवं सुधा सिहं, जनमाध्यम सैद्धांतिकी, अनामिका प्रकाशन नई दिल्ली, पृ.120