संस्कृति की भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों की परिभाषाएं (Definitions of Culture)

Definitions of Culture संस्कृति के विविध पहलुओं पर विमर्श

Definitions of Culture संस्कृति को परिभाषित करने का प्रयत्न लंबे अर्से से किया जा रहा है।

भारतीय विद्वानों की परिभाषाएं Definitions of Culture

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार ”संस्कृति मानव की विविध साधनों की परिणित में निहित है। संस्कृति उस दृष्टिकोण को कहते है। जिससे समुदाय विशेष जीवन की समस्याओं का निर्भर करता है।”[1]

आधुनिक राष्ट्रकवि एवं आलोचक रामधारी सिंह ‘दिनकर’ संस्कृति पर विचार व्यक्त करते हुए लिखते है। “संस्कृति जिन्दगी का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से जमा होकर उस समाज में छाया रहा है, इसलिए जिस समाज में हम पैदा हुए है अथवा जिस समाज में मिलकर हम जी रहे है, उसकी संस्कृति हमारी संस्कृति है, यद्यपि अपने जीवन में हम जो संस्कार जमा करते हैं, वह भी हमारी संस्कृति का अंग बन जाता है और मरने के बाद हम अन्य वस्तुओं के साथ अपनी संस्कृति की विरासत भी अपनी संतानों के लिए छोड़ जाते हैं। इसलिए संस्कृति वह चीज मानी जाती है, जो हमारे सारे जीवन को व्यापे हुए है तथा जिसकी रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का हाथ है। यही नहीं, बल्कि संस्कृति हमारा पीछा जन्म-जन्मांतर तक करती हैं।”[2]

मुक्तिबोध ने लिखा है कि “जीवन जैसा है, उससे अधिक अच्छा, सुन्दर, उदात्त और मंगलमय बनाने की इच्छा आरंभ से ही मनुष्य की रही है। यही इच्छा जब सामाजिक रूप लेती है तब संस्कृति कहलाती है।”[3]

डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन धर्म, दर्शन और संस्कृति के क्षेत्र में अपना विशेष स्थान रखते हैं। उनकी धारण है, “संस्कृति वह वस्तु है जो स्वभाव, मार्धुय, मानसिक निरोगता एवं आत्मिक शक्ति प्रदान करती है।[4]

भगवतशरण उपाध्याय के अनुसार “संस्कृति जिस रूप में हम उसे आज मानने लगे हैं, इन विकास की मंजिलों की ओर उतना संकेत न कर अधिकतर उन सूक्ष्म तत्त्वों में संबंध रखती है, जो विचार, रुचि, कला, आदर्श आदि की दुनिया है।”[5]

राहुल सांस्कृत्यायन के अनुसार “एक पीढ़ी आती है, वह अपने आचार-विचार, रुचि-अरुचि, कला-संगीत, भोजन-छापन या किसी और दूसरी आध्यात्मिक धारण के बारे में कुछ स्नेह की मात्रा अगली पीढ़ी के लिए छोड़ जाती है। एक पीढ़ी के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी और आगे बहुत-सी पीढ़ियाँ आती, जाती है और सभी अपना प्रभाव या संस्कार अपनी पीढ़ी पर छोड़ती जाती है, यह प्रभाव संस्कृति है।”[6]

डॉ.सम्पूर्णनंद के अनुसार “संस्कृति को वर्तमान अनुभूतियों एवं पुरातन अनुभूतियों के संस्कारों से निर्मित किसी समुदाय से दृष्टिकोण में निहित मानते है।[7]

बाबू गुलाबराय के अनुसार “संस्कृति को जातिगत संस्कारों में निहित मानते है।”[8] Definitions of Culture

डॉ.वासुदेवशरण अग्रवाल का संस्कृति के संदर्भ में मत है “संस्कृति मनुष्य के भूत, वर्तमान और भावी जीवन का सर्वांगपूर्ण प्रकार है, हमारे जीवन का ढंग हमारी संस्कृति है। संस्कृति हवा में नहीं रहती, उसके मूर्तिमान रूप होता है। जीवन के नानाविध रूपों का समुदाय ही संस्कृति है।”[9]

कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ संस्कृति को व्याख्यायित करते हुए लिखते हैं, “संस्कृति मूलतः एक मूल्य दृष्टि और उससे निर्दिष्ट होने वाले निर्माता प्रभावों का नाम, उन सभी निर्माता-प्रभावों का जो समाज को, परिवार को, सबके आपसी संबंधों को, श्रम और सम्पत्ति के विभाजन और उपयोग को, प्राणिमात्र से ही नहीं वस्तु मात्र से हमारे संबंधों को निरुपित और निर्धारित करते है।”[10]

पाश्चात्य विद्वानों की परिभाषाएं Definitions of Culture

प्रसिद्ध कवि एवं आलोचक मैथ्यू आर्नल्ड के अनुसार “संस्कृति मानव प्रकृति की परिपूर्णता में है। यह जीवनगत सौंदर्य एवं प्रकाश का द्योतक है, और इसमें विश्लेषणात्मक प्रवृत्तियों का दमन होता है। यह संस्कृति वस्तुतः धर्म के आलोक से मंडित रहती है, और आदर्शों के शिखर पर हमें ले जाती है।”[11]

ई.वी.टायलर संस्कृति को परिभाषित करते हुए कहते है “संस्कृति एक जटिल समष्टि है। उसके अंतर्गत ज्ञान, विश्वास, कला आचार, कानून प्रथा तथा अन्य क्षमताएं सम्मिलित हैं, जिन्हें मनुष्य समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है।”[12]

मेकाइवर और पेज के अनुसार- “संस्कृति हमारे दैनिक व्यवहार में, कला में, साहित्य में, मनोरंजन में, धर्म में, तथा आनंद में पाये जाने वाले रहन-सहन और विचार के तरीकों में हमारी प्रवृत्ति की अभिव्यक्ति है।”[13]

टी.एस. इलियट के अनुसार- “शिष्ट व्यवहार, ज्ञानार्जन, कलों के आस्वादन इत्यादि के अतिरिक्त किसी जाति की अथवा वे समस्त राष्ट्रीय क्रियाएँ एवं कार्य-कलाप जो उसे विशिष्टता प्रदान करते है, संस्कृति के अंग है।”[14]

रेडोलिफ ब्राउन संस्कृति को एक पारस्परिक प्रक्रिया के रूप में स्वीकार करते हुए कहते है, “संस्कृति वह प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से किसी सामाजिक वर्ग या श्रेणी में विचार, अनुभूति या क्रिया के सुसंस्कृत ढंग एक व्यक्ति से दूसरे तक और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक संक्रांत किए जाते है।”[15]

कार्लेटन एस. कनू ने भी शिक्षा को जीवन-पद्धति का माध्यम स्वीकार करते हुए प्रकारांतर से संस्कृति को एक अनवरत समुच्चय की प्रक्रिया स्वीकार किया है।”[16]

क्रोबर एवं क्लकहॉन इन दोनों मानवशास्त्रियों का कहना है कि “संस्कृति एक ऐसे सामाजिक नियमों एवं आदर्शों का समूह है, जो व्यक्ति के आचारण को निर्धारित करता है” उन्हीं के शब्दों में “संस्कृति व्यवहार के प्रतिरूप स्पष्ट तथा अस्पष्ट के मिलने से बनती है, जो मानवीय समूहों को विशिष्ट उपलब्धियों के रूप में प्रतीकों के द्वारा प्राप्त किया जाता है और हस्तांतरित होता है।”[17]

युलिआन ब्रोमलेय एवं रोमान पोदोल्नी के अनुसार “संस्कृति मनुष्य की सजृनात्मक शक्तियों और योग्यताओं तथा समाज के विकास का ऐतिहासिक निर्धारित स्तर है।”[18]

मैलबिज जे. हर्सकोविप्स के शब्द में “संस्कृति किसी कठोर ढांचे में बन्ध प्रणाली नहीं है, जिसमें किसी समाज के सभी सदस्यों का व्यवहार व अभ्यस्त विचार रीतियों का योग है।”[19]

रेमंड विलियम्स ने जोर देकर कहा है कि “संस्कृति किसी भी समाज की सकल जीवन शैली है। संस्कृति कोई गीत हीन एवं संपूर्ण हो जाने वाली चीज नहीं अपितु एक सतत् प्रक्रिया है संस्कृति का निरंतर नवीकरण होता रहता है, इसकी पुनर्रचना भी होती है, तो कभी-कभी रक्षा भी और समय के साथ-साथ इसमें बदलाव भी आते रहते है।”[20]

नृविज्ञान में “संस्कृति शब्द का प्रयोग इस अर्थ में संस्कृति में शामिल है, मानव निर्मित वह स्थूल वातावरण, जिसे मानव ने अपने उद्यम, कल्पना ज्ञान-विज्ञान और कौशल द्वारा रचकर प्राकृतिक जगत के ऊपर एक स्वनिर्मित कृत्रिम जगत स्थापित किया। नृविज्ञान इस मानव द्वारा निर्मित कृत्रिम जगत को ही संस्कृति की संज्ञा देता है। इस कृत्रिम जगत को रचने की प्रक्रिया में संस्कृति के अंतर्गत विचार, भावना, मूल्य, विश्वास, मान्यता, चेतना, भाषा, ज्ञान, कर्म, धर्म इत्यादि, जैसे सभी अमूर्त तत्व स्वयमेव शामिल है। मानव विज्ञान संस्कृति को भौतिक स्वरूपों को आध्यात्मिक संस्कृति कहता है, और मूर्त रूपों को भौतिक संस्कृति की संज्ञा देता है। इस प्रकार इन दोनों संस्कृतियों के संयुक्त विकास से परिष्कार पाकर मनुष्य सुसंस्कृत बनता है।”[21]


[1] डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, अशोक के फूल, पृ. 58

[2] रामधारी सिहँ ‘दिनकर’ संस्कृति के चार अध्याय,  पृ. 653

[3] मुक्तिबोध, भारत : इतिहास और संस्कृति, भूमिका पृ.1

1. डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, स्वतंत्रता और संस्कृति, पृ. 33

[5] भगवतशरण उपाध्याय, सांस्कृतिक भारत, पृ. 95

[6] राहुल सांस्कृत्यायन, बौद्ध संस्कृति, पृ.3

[7] डॉ. संपूर्णानंद, हिंदू अंक(कल्याण), पृ.70

[8] गुलाबराय, भारतीय संस्कृति की रूपरेखा,  पृ.1

[9]  डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, कल्पवृक्ष,  पृ.26

[10] सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, धार और किनारे, पृ.36

[11]   मैथ्यू आर्नल्ड, कल्चर एण्ड अनार्की,पृ.11

[12]  ई.वी. टालयर, प्रीमीटिव कल्चर,  पृ.1

[13]  मेकाइवर एण्ड पेज, सोसाइटी, पृ.449

[14]  टी.एस.इलियट, नोट्स टूवार्डस द डेफिनेशन ऑफ कल्चर, पृ.21

[15]  रोडोलिफ, ब्राउन, इन्टरनेशन्ल साइक्लोपिडया ऑफ सोशल साईस, भाग-3,पृ.536

[16]  कार्लेटन एस. कनू,  सोसाइटी कल्चर, पृ.118 

[17]  क्रोवर क्लकहॉल,  क्रिटिकल रिव्यू ऑफ कनसेप्टस एंड डेफिनेशन, p-181

[18] युलिआन ब्रोमलेय एवं रोमान पोदोल्नी, मानव और संस्कृति, पृ.21

[19]  सां0 मैलविज जे. हर्सकोविटस, सांस्कृतिक मानवशास्त्र, पृ.346

[20]  रेमंड विलियम्स, कल्चर एण्ड सोसायटी, पृ.14

[21]  मैलीनोवस्की ,द साइंटीफिट थियुरी ऑफ कल्चर, पृ.87