लोक संस्कृति और पॉपुलर संस्कृति (Folk Culture and Popular Culture)

Folk Culture and Popular Culture

Folk Culture and Popular Culture लोक साहित्य मानव विकास की एक लम्बी कहानी है। लोक साहित्य में लोक संस्कृति का वास्तविक प्रतिबिम्ब ही होता है।

“ई. वर्ल्ड में देश-काल, संस्कृति-समाज, परिवार का विखण्डन आधुनिकता का पर्याय बन गया है।  कभी परिवार का अर्थ कुटुम्ब हुआ करता था, परन्तु आज  वह पति-पत्नी और बच्चों तक सीमित हो गया है। ऐसी स्थिति में अपराध, हत्या, आत्महत्या, प्रमाद, उन्माद जैसी मनोवैज्ञानिक जटिलताएं मनुष्य को घेर रहीं हैं। परिवार टूट रहे हैं, यहाँ तक कि दाम्पत्य-सम्बन्ध तक नगरीकरण, आर्थिक उदारीकरण, कम्प्यूरीकरण, वैश्वीकरण की बलि चढ़ रहे हैं। संवादहीनता, घुटन, आक्रोश, अविश्वास आज की मूल प्रवृत्तियां बन गई हैं। ऐसे नवीन जीवन मूल्यों में भारतीय परम्पराओं को यदि जीवित रखना है, तो इसे मध्यकालीन एवं प्राचीनकालीन, भारतीय सांस्कृतिक-आख्यानों, कथाओं, गाथाओं के सांस्कृतिक संदेशों की संजीवनी देना अनिवार्य हो गया है।

लोक-साहित्य एवं लोक संस्कृति इनका सर्वश्रेष्ठ स्रोत हैं। लोक संस्कृति ही भारतीय संस्कृति की जड़ है। जिसके रस से भारतीय संस्कृति का पौधा पल्लवित ,पुष्पित और सुफलित है। अत: वर्तमान समय में लोक साहित्य एवं लोक संस्कृति की परम्परा की प्रासंगिकता एवं सामाजिक परिप्रेक्ष्य को बनाए रखने तथा इसके संरक्षण एवं संवर्धन के लिए सरकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर प्रयास अवश्य होने चाहिए।”[i] तभी वर्चुअल स्पेस और लोक स्पेस के बीच की दूरी को खत्म किया जा सकेगा।

वर्चुअल स्पेस: पॉपुलर हरियाणवीं गीत (Folk Culture and Popular Culture)

हरियाणवी के पॉपुलर गीत अपनी भाषा और विषय-वस्तु के स्तर पर पारंपरिक लोकगीतों और रागणियों से बिल्कुल अलग हैं। यह भिन्नता वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक संघर्षों के  मनोरंजन के क्षेत्र में उतरते ही शुरु होती है जो कि एक खास रणनीति के तहत अपना-अपना वर्चस्व एवं पहचान को उभारने तक पहुंचती है। वहीं पारंपरिक गीत एवं रागणियां एक खास वर्ग और ‘उमर’ के लोगों तक सीमित हैं। पॉपुलर हरियाणवीं गीत केवल मनोरंजन का साधन एवं माध्यम भर नहीं रह गए हैं, बल्कि सत्ता-विमर्श और वर्चस्व की राजनीति-रणनीति का अहम् हिस्सा बनने लगे हैं, जिस कारण अब इन गीतों की आपस में प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है।

 इनमें सामाजिक सत्ता जैसे वर्ग, लिंग, नैतिकता आदि के सवाल नए स्वरूपों में बनने एवं बिगड़ने लगे हैं और झगड़ों का कारण भी बनने लगे हैं, जैसे किसी अन्य जाति के विवाह समारोह में ‘जाट्टा का छोरा’ या  ‘ रोड़ा का छोरा’  गीत बजाने पर कईं  बार विवाद हुए हैं तथा यूटयूब पर मौजूद इन गीतों पर गाली-गलौच वाली टिप्पणियां आती रहती हैं। मनोरंजन के साथ-साथ पॉपुलर हरियाणवी गीतों में सांस्कृतिक बहुलता के अनेक पाठ उभरते हैं, जिनका विश्लेषण लोकवृत्त के आधार को ध्यान में रखकर किया जा सकता है, जिसमें एक खास वर्चस्व की राजनीति भी शामिल है। संस्कृति की चर्चा चाहे जिस रूप में हो, जिस किसी भी काल-खंड की हो, सत्ता से जोड़कर देखे बिना इसका विश्लेषण किया जाना संभव नहीं है।

बदलती सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक एव सांस्कृतिक परिस्थितियों के कारण समाज और व्यक्ति की संरचनाओं, अभिरूचियों, अवधारणाओं एवं जीवन शैली को भी इन गीतों के माध्यम से समझा जा सकता है जैसे कि शादियों में बजने वाला गीत– “ हट ज्यां ताऊ पाच्छै न, नाचण दे न जी भर क नै ” पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के बीच के अंतराल, टकराव लेकिन बनती संवादधर्मिता को भी दर्शाता  है। सामाजिक स्तर पर जो मतभेद के कारण बने हैं, वे इन गीतों में साफ झलकते हैं। ‘मैडम बैठ बलैरो मैं’, ‘जीजा मेरे बयाह मैं के देगा’ ऐसे गीत हैं जिनका कि मनोरंजन के बहाने बनती-बदलती सामाजिक संरचना के लिहाज से अध्ययन किया जा सकता है।


संदर्भ सूची

[i]  संपादक-डॉ.वीरेन्द्रसिंह यादव, लोक साहित्य एवं लोक संस्कृति : परम्परा की प्रासंगिकता एवं सामाजिक परिप्रेक्ष्य, ओमेगा पबिलकेशन्स, 43784, अंसारी रोड, दरियागंज, नर्इ दिल्ली-110002