जन-संस्कृति की परिभाषाएं (Definitions of Mass Culture)

Definitions of Mass Culture जन संस्कृति और अभिजन संस्कृति में अंतर

Definitions of Mass Culture जन-संस्कृति की धारा 1928 ई. में अमेरिकी राजनीति विज्ञानी एच. डी. लॉसवेल के द्वारा एक नकारात्मक अर्थ में प्रयुक्त हुई थी। जन संस्कृति के साधन, उद्योग एवं व्यापार के हितों की खातिर सूचना, संवाद और संस्कृति के तत्वों को अधिक-से-अधिक लोगों तक पहुँचना चाहते हैं। इस कोशिश में संस्कृति के तत्वों को सरल या घटिया बना देते है। आम लोगों को संचार माध्यमों से परोसी जाने वाली इस घटिया संस्कृति को उन्होंने जन-संस्कृति कहा था।

जब से समाज के साथ-साथ संस्कृति का विकास हुआ है तब से संस्कृति के दो रूप मिलते हैं- अभिजन संस्कृति और जन संस्कृति। अभिजन संस्कृति के समानांतर जन संस्कृति का विकास होता है। अभिजन संस्कृति के विकल्प और विरोध में जनसमुदाय जन संस्कृति की रचना करता है। संस्कृति की अभिव्यक्ति सबसे ठोस, स्थायी और प्रभावशाली रूप में भाषा और साहित्य में होती है। जन संस्कृति की अभिव्यक्ति का एक रूप लोक-संस्कृति होती है। लोक-संस्कृति और लोकप्रिय संस्कृति में अनेक अंतर हैं।

एक तो लोक संस्कृति गण समाज में आज तक किसी-न-किसी रूप में निर्मित और विकसित होती आ रही है जबकि लोकप्रिय संस्कृति पूंजीवादी युग और समाज की उपज है। दूसरा अंतर यह है कि लोक-संस्कृति की रचना जनसमुदाय करता है और वही श्रोता भी होता है। तात्पर्य यह कि लोक संस्कृति जनता के लिए, जनता के बारे में, जनता द्वारा रचित संस्कृति है।

जन संस्कृति (Definitions of Mass Culture) लोक संस्कृति का ही विकृत रूप माना जाता है। लोक संस्कृति में जन-जीवन के सुख-दुख और अंतर्विरोध सामूहिक एवं स्वतः स्फर्त रूप होते है। लोक संस्कृति अपने समाज का सामूहिक रचना होती है। इसका निर्माण समस्त समाज करता है। लोक संस्कृति में लोक की आकांक्षाएँ अभिव्यक्त होती है। जन संस्कृति के निर्माता लोक संस्कृति को कच्चे माल के बतौर उपयोग करते है, क्योंकि इसमें जनता की आकांक्षाएँ भ्रुण रूप में मौजूद रहती है। यह आकांक्षाएँ शासकवर्गीय विचारधारा, जनता के पिछड़े चिंतन और परंपराओं से प्रभावित रहती है। इसलिए जन-संस्कृति का निर्माण लोक संस्कृति का अतिक्रमण करके ही किया जाता है।

जन-संस्कृति या सब अल्टर्न संस्कृति (Definitions of Mass Culture)

जन-संस्कृति (Definitions of Mass Culture) को इतिहासकारों ने इस संस्कृति को ‘सब अल्टर्न’ संस्कृति कहा है। जन संस्कृति और लोक संस्कृति का गहरा रिस्ता है। जन-संस्कृति लोक-संस्कृति के उपादानों पर विकसित होती है, लोक संस्कृति की संप्रेषणीयता के तत्वों को ग्रहण करती है तथा शासकवर्ग की विचारधारा को, मूल्य को, मान्यताओं को दूर करके ही अपना स्वरूप ग्रहण करती है।

साधारणतः जन का अर्थ एक व्यक्ति से लिया जाता है। इसलिए जो विद्वान जन का अर्थ व्यक्ति से लेते रहे है, वे जन के सही अर्थ को भ्रमित करने में भूमिका निभाते रहे। जन का सही अर्थ है-समुदाय या लोक। इसलिए जन शब्द व्यक्तिवादी नहीं है। वह समूह अथवा समुदायवादी ही है। अतः साहित्य में जन संस्कृति को व्याख्यायित करते हुए हमें यह स्पष्ट करना होगा कि जन संस्कृति से हमारा तात्पर्य उस लोक जीवन से जुड़ी संस्कृति से है जो तब से चली  रही है, जब से मनुष्य और प्रकृति के बीच संबंध स्थापित हुआ है। इसलिए जन संस्कृति सदैव ही मेहनत कश जनता की रही है, जिसे हम लोक संस्कृति भी कहते है।

आज जन-संस्कृति में जनता के बीच से पैदा होने वाली सहज लोकप्रिय कला और बाजार के लिए बड़े पैमाने पर उत्पादित होने वाली कला में अंतर समाप्त हो जाता है। इसमें जनसंचार के माध्यमों  और प्रकाशन की बड़ी भूमिका होती है अखबार, पत्र-पत्रिकाएँ और पुस्तकें लाखों की तादाद में छपकर बाजार में आने लगीं। रेडियो, सिनेमा और टेलिविजन संगीत और नाटक के नये सरक्षकों की माँग की पूर्ति करने के लिए सामने आये। इतने दिनों में जन-संस्कृति का आज अपना एक अलग स्वरूप बन गया है, लेकिन इसमें शक नहीं कि वह अपने स्वभाव से परजीवी है। लोक संस्कृति से उसकी कोई समानता नहीं। क्योंकि लोक-कला परजीवी नहीं होती। वह अभिजात्य कला से स्वतंत्र रहकर अपना विकास करती है, लेकिन जन-संस्कृति के लिए यह संभव नहीं है। लोक संस्कृति सामान्य जन की स्वतः स्फर्त अभिव्यंजना का परिणाम है जबकि जन-संस्कृति को सामान्यजन पर ऊपर से थोपा जाता है। आज जन-संस्कृति छद्म चेतना पैदा करती है। उसमें वस्तु से अधिक उसके प्रभाव का महत्त्व हो जाता है। यही नहीं उसने पुराने समय की कला के अनेक प्रवृतियों और विशेषतों को तोड़-मरोड़कर विकृत करके अपने उद्देश्य के अनुकूल उनका उपयोग करती है।

 “जन-संस्कृति शब्द का अर्थ दो रूपों में किया जाता है। एक वह संस्कृति जो जन संपर्क के साधनों के विकास के साथ जनपुंज समाज की विशेषता बन चुकी है। पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएँ, रेडियो, दूरदर्शन, फिल्म जैसे जन-माध्यमों को देखने, पढ़ने अथवा सुनने के परिणामस्वरुप एवं वृह्रत एवं विजातीय समाज में ऐसे सांस्कृतिक तत्वों का उदय जन-संस्कृति के नाम से जाना जाता है, जो समाज को एक सूत्र में बाँधने का कार्य करते हैं। जन-संस्कृति आधुनिक औद्योगिक एवं जटिल समाजों  एक प्रमुख विशेषता है। दूसरा अब यह शब्दावली लोकप्रिय संस्कृति का संकेत देने के लिए भी प्रयुक्त होने लगी है।”[1]

टी. डब्ल्यू. एडर्नो कहते है कि “जन संस्कृति की साज-सज्जा अनलंकृत है। वह किसी अन्य चीज से ज्यादा अपने को मकसद के साथ में घुला मिला देती है। यह इतने गंभीर ढंग से होता है कि इसमें बकवास की कोई गुंजाइश नहीं बचती। वह जिस नई वस्तुपरकता की नकल करती है वह वास्तुकला में विकसित हुई है।”[2]

“उत्पादन के तकनीकी साधनों के साथ सामंजस्य के माध्यम से मनुष्य एक वस्तु बन जाता है। मनुष्य और मशीन के बीच सामंजस्य प्रगति के नाम पर व्यवस्था द्वारा थोप दिया जाता है। मनुष्य के वस्तु बन जाने की गति को बिना किसी विरोध के छल-कपट के संचालित किया जाता है। इस तरह मनुष्य उत्पादन के तकनीकी साधनों की क्षमता की तुलना में मूर्त रूप देने की प्रक्रिया की अंतिम सीमा का निर्धारण मनुष्य खुद करता है। इसलिए जन संस्कृति को उस पर पकड़ बनाए रखने की कोशिश बार-बार करनी पड़ती है।”[3]

“जहाँ अब तक कोई ऐसी चीज ही नहीं है जिसमें से कुछ चुना जाए, वहां विज्ञापन ही सूचना बन जाता है जब ब्रांड की पहचान ने चुनाव की जगह ले ली हो, और साथ ही जब पूरी परिस्थिति उन सारे लोगों को बाध्य करती है जो प्रक्रिया के साथ मिलकर चलना चाहते हैं तब विज्ञापन सूचना बन जाता है। एकाधिकारवादी जनसंस्कृति में ठीक यही होता है। जरूरतों के बढ़ते वर्चस्व में हम लोग तीन मंजिलों को चिह्नित कर सकते हैः विज्ञापन, सूचना (जानकारी) और नियंत्रण। सर्वव्यापी प्रचलन के स्वरूप की तरह जन संस्कृति तीन मंजिलों का एक साथ घालमेल कर देती है।”[4]

 “जनसंस्कृति से अतीत का कोई मतलब नहीं रखने वाले लोग भी अब उससे कुछ हद तक प्रभावित हो जाते है जैसे गाँव के लोग और पढ़े-लिखे लोग। दरअसल टेलिविजन, इन्टरनेट ऐसे माध्यम है जिसने सांस्कृतिक बदलावों में एक क्रांतिकारी भूमिका अदा की। बेशक ये बदलाव सकारात्मक भी रहे और नकारात्मक भी।[5] टी.डब्ल्यू. एडर्नो ने उस आम धारणा को ही यहाँ अभिव्यक्ति किया, जो कहती है कि निम्न शैक्षिक स्तर वाले लोग गलत चीजों से जल्दी प्रभावित होते हैं।

रेमंड विलियम्स ने लिखा है कि “संस्कृति महान परंपराओं की आम विरासत होती है।”[6]        

एस.हाल ने अपनी पुस्तक ‘पॉपुलर आटर्स’(1964) में पूर्व औद्योगिक युगीन ब्रिटेन  की संस्कृति को ‘जन संस्कृति’ से अलग करते हैं। पुरानी संस्कृति के चले जाने पर लिखा है कि “जिंदगी की जिस शैली ने उसे पैदा किया वह चली गई, इसलिए पुरानी संस्कृति भी चली गई। कार्य करने की गति  पूरी तरह बदल गई है। छोटे स्तर की बंद सामुदायिक जिंदगी भी बदल गई है। स्थानीय पहल कदमी को पुनर्स्थापित करते हुए यह ध्यान रखें कि इसके खिलाफ निरर्थक प्रतिरोध न करें। किंतु अगर हम पुनः यथार्थ रूप में पॉपुलर कल्चर पैदा करना चाहते है तो हमें मौजूदा समाज के भीतर ही विकास को करना होगा।”[7]

‘पॉपुलर आटर्स’ को आधार बनाकर जॉन फिक्स और हर्टली ने ‘रीड़िंग टेलिविजन’ (1976) लिखी उन्होंने लिखा कि “सिनेमा में हम चित्रों की गुणवत्ता पर ध्यान देते हैं, उसी तरह हमें वाचिक इमेजों, गति आदि पर भी ध्यान देना चाहिए। उन्होंने ‘पॉपुलर कला’ और ‘जन कला’ का अंतर किया। ‘पॉपुलर कला’ का उदय लोक संस्कृति से होता है, जबकि ‘जन कला’का जन्म ‘पॉपुलर कला’ के भ्रष्टीकरण के गर्भ से हुआ है।”[8]


[1]  टी.डब्ल्यू.एडर्नो, संस्कृति उद्योग, ग्रंथ शिल्पी प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 87

[2]  टी.डब्ल्यू.एडर्नो, संस्कृति उद्योग, ग्रंथ शिल्पी प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 102

[3]   टी.डब्ल्यू.एडर्नो,  संस्कृति उद्योग,  ग्रंथ शिल्पी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 102

[4]   टी. डब्ल्यू. एडर्नो, संस्कृति उद्योग, नई दिल्ली, पृ. 94

[5] टी. डब्ल्यू. एडर्नो, संस्कृति उद्योग, ग्रंथ शिल्पी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 96

[6] जगदीश चतुर्वेदी एवं सुधा सिहं, जनमाध्यम सैद्धांतिकी, अनामिका प्रकाशन नई दिल्ली, पृ.45

[7]जगदीश चतुर्वेदी एवं सुधा सिहं, जनमाध्यम सैद्धांतिकी, अनामिका प्रकाशन नई दिल्ली, पृ.

[8] जगदीश चतुर्वेदी एवं सुधा सिहं, जनमाध्यम सैद्धांतिकी, अनामिका प्रकाशन नई दिल्ली, पृ.